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________________ wwwwwwwwww ७४४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय है उनमें से बहुत से रूप और प्रयोग जैन आगमों की भाष्य-चूर्णियों में नजर आते हैं. इस दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के विद्वानों को ये ग्रन्थ देखना अत्यावश्यक है. इन ग्रन्थों में कई प्रकार के स्वर- व्यञ्जन के विकार वाले प्रयोग, नये-नये शब्द एवं धातु, नये-नये शब्द धातुओं के रूप, आज के व्याकरणों से सिद्ध न होनेवाले आर्य प्रयोग और नये-नये देशीशब्द पाये जाते हैं जिनका उल्लेख पिशल के व्याकरण में नहीं हुआ है. व्याकरण, देशीनाममाला आदि शास्त्र रचने वालों की अमुक निश्चित मर्यादा होती है, इस पर से उनके जमाने में अमुक शब्द, धातुप्रयोग आदि नहीं थे या उनके खयाल में अमुक नहीं आया था, यह कहना या मान लेना संगत नहीं. डॉ० पिशल ने 'खंभ' शब्द का निष्पादन वेद में आनेवाले 'स्कंभ' शब्द से किया है. इस विषय में पिशल के व्याकरण के हिंदी अनुवाद के आमुख में श्रीयुक्त जोषी जी ने 'प्राकृत वैयाकरणों को इस बात का पता नहीं लगा' इत्यादि लिखा है, यह उनका पिशल के व्याकरण का हिंदी अनुवाद करने के आनन्द का भावावेश मात्र है. हमेशा युग-युग में साहित्यनिर्माण का अलग-अलग प्रकार का तरीका होता है. उसके अनुसार ही साहित्य की रचना होती है. आज का युग ऐतिहासिक परीक्षण को आधारभूत मानता है, प्राचीन युग साम्प्रदायिकता को आधारभूत मानकर चलता था. आज के युग के साधन व्यापक एवं सुलभ हैं; प्राचीन युग में ऐसा नहीं था. इन बातों को ध्यान में रखा जाय तो वह युग और उस युग के साहित्य के निर्माता लेश भी उपालम्भ या आक्षेप के पात्र नहीं हैं. अगर देखा जाय तो साधनों की दुर्लभता के युग में प्राचीन महर्षि और विद्वानों ने कुछ कम कार्य नहीं किया है. पिशल के व्याकरण के हिंदी अनुवादक श्रीयुक्त जोषीजी को पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानों की विपुल विचारसामग्री में से प्राकृत भाषाओं के सम्बन्ध में ज्ञातव्य कोई लेखादि नजर में नहीं आया, सिर्फ उनकी नजर में विदुषी श्रीमती डोलची नित्ति के ग्रन्थ का आचार्य श्री हेमचन्द्र एवं डॉ० पिशल के व्याकरण की अतिकटु टीका जितना अंश ही नजर में आया है जिसका सारा का सारा हिन्दी अनुवाद आमुख में उन्होंने भर दिया है जो पिशल के व्याकरण के साथ असंगत है. एक ओर जोषीजी स्वयं डॉ० पिशल को प्राकृतादि भाषाओं के महर्षि आदि विशेषण देते हैं और दूसरी ओर डोलची नित्ति के लेख का अनुवाद देते हैं जो प्राकृत भाषा के विद्वानों को समग्रभाव से मान्य नहीं है, यह बिलकुल असंगत है. एक दृष्टि से ऐसा कहा जा सकता है कि श्रीयुक्त जोशीजी ने ऐसा निकृष्ट कोटि का आमुख, जिसमें आप प्राकृत भाषाओं के विषय में ज्ञातव्य एक भी बात लिख नहीं पाये हैं, ― लिख कर अपने पाण्डित्यपूर्ण अनुवाद को एवं इस प्रकाशन को दूषित किया है. डॉ० पिशल का 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ० हेमचन्द्र जोषी डी० लिट् ने किया है और जो 'बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्' की ओर से प्रकाशित हुआ है, उसमें अनुवादक और प्रकाशकों ने बहुत अशुद्ध छपने के लिये खेद व्यक्त किया है और विस्तृत शुद्धिपत्र देने का अनुग्रह भी किया है तो भी परिषद् के मान्यकुशल नियामकों से मेरा अनुरोध है कि ६८ पन्नों का शुद्धिपत्र देने पर भी प्राकृत प्रयोग और पाठों में अब भी काफी अशुद्धियाँ विद्यमान हैं, खास कर जैन आगमों के प्रयोगों और पाठों की तो अनर्गल अशुद्धियाँ रही हैं. इनका किसी जैन आगमज्ञ और प्राकृत भाषाभिज्ञ विद्वान से परिमार्जन विना कराये इसका दूसरा संस्करण न निकाला जाय. शब्दों की सूची को कुछ विस्तृत रूप दिया जाय एवं ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के नामों के परिशिष्ट भी साथ में दिये जायें. अन्त में अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए आप विद्वानों से अभ्यर्थना करता हूँ कि मेरे वक्तव्य में अपूर्णता रही हो उसके लिये क्षमा करें. साथ ही मेरे वक्तव्य को आप लोगों ने शान्तिपूर्वक सुना है इसके लिये आपको धन्यवाद. साथ ही मैं चाहता हूं कि हमारी इस विद्यापरिषद् द्वारा समान भावपूर्वक संशोधन का जो प्रयत्न हो रहा है उससे विशुद्ध आर्यधर्म, शास्त्र, साहित्य एवं समस्त भारतीय प्रजा की विशद दृष्टि के साथ तात्त्विक अभिवृद्धि-समृद्धि हो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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