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________________ मुनि श्रीपुण्यविजय: जैन श्रागमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७३३ टिप्पन, विषमपदपर्याय आदि भिन्न भिन्न नामों वाली व्याख्याएं लिखी हैं जो मूलसूत्रों का अर्थ समझने में बड़ी सहायक है. ये व्याख्याएं प्राचीन वृत्तियों के अंशों का शब्दशः संग्रह रूप होने पर भी कभी-कभी इन व्याख्याओं में पारिभाषिक संकेतों को समझाने के लिए प्रचलित देशी भाषा का भी उपयोग किया गया है. कहीं-कहीं प्राचीन वृत्तियों में 'सुगम' . 'स्पष्ट' 'पाठसिद्ध' आदि लिखकर छोड़ दिये गये स्थानों की व्याख्या भी इनमें पाई जाती है. इस दृष्टि से इन व्याख्याकारों के भी हम बहुत कृतज्ञ हैं. wwwwwwwwwww प्राकृत वाङ्मय भारतीय प्राकृत वाङ्मय अनेक विषयों में विभक्त है. सामान्यतः इनका विभाग इस प्रकार किया जा सकता है : जैन आगम, जैन प्रकरण, जैन चरित-कथा, स्तुति-स्तोत्रादि, व्याकरण, कोष, छंदःशास्त्र, अलंकार, काव्य, नाटक, सुभाषित आदि. यहां पर इन सबका संक्षेप में परिचय दिया जायगा. जैन श्रागम—जिस प्रकार वैदिक और बौद्ध साहित्य मुख्य और अवान्तर अनेक विभागों में विभक्त है उसी प्रकार जैन आगम भी अनेक विभागों में विभक्त है. प्राचीन काल में आगमों के अंग आगम और अंगबाह्य आगम या कालिक आगम और उत्कालिक आगम इस तरह विभाग किये जाते थे. अंग आगम वे हैं जिनका श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर-पट्टशिष्यों ने निर्माण किया है. अंगबाह्य आगम वे हैं जिनकी रचना श्रमण भगवान् महावीर के अन्य गीतार्थ स्थविरों, शिष्यों-प्रशिष्यों एवं उनके परम्परागत स्थविरों की थी. स्थविरों ने इन्हीं आगमों के कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये हैं. निश्चित किये गये समय में पढ़े जाने वाले आगम कालिक हैं और किसी भी समय में पढ़े जाने वाले आगम उत्कालिक हैं. आज सैकड़ों वर्षों से इनके मुख्य विभाग अंग, उपांग, छेद, मूल आगम, शेष आगम एवं प्रकीर्णक के रूप में रूढ़ हैं. प्राचीन युग में इन आगमों की संख्या नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के अनुसार चौरासी थी परन्तु आज पैंतालीस है. नंदीसूत्र में एवं पाक्षिकसूत्र में जिन आगमों के नाम दिये हैं उनमें से आज बहुतसे आगम अप्राप्य हैं जब कि आज माने जाने वाले आगमों की संख्या में नये नाम भी दाखिल हो गये हैं जो बहुत पीछे के अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण के भी हैं. आज माने जानेवाले पैतालीस आगमों में से बयासीस आगमों के नाम नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में पाये जाते हैं किन्तु आज आगमों का जो क्रम प्रचलित है वह ग्यारह अंगों को छोड़कर शेष आगमों का नंदीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नहीं पाया जाता. नंदीसूत्रकार ने अंग आगम को छोड़कर शेष सभी आगमों को प्रकीर्णकों में समाविष्ट किया है. आगम के अंग, उपांग, छेद, प्रकीर्णक आदि विभागों में से अंगों के बारह होने का समर्थन स्वयं अंग ग्रंथ भी करते हैं. उपांग आज बारह माने जाते हैं किन्तु स्वयं निरयावलिका नामक उपांग में उपांग के पांच वर्ग होने का उल्लेख है. छेद शब्द नियुक्तियों में निशीथादि के लिए प्रयुक्त है. प्रकीर्णक शब्द भी नंदीसूत्र जितना तो पुराना है ही किन्तु उसमें अंगेतर सभी आग मों को प्रकीर्णक कहा गया है.. अंग आगमों को छोड़कर दूसरे आगमों का निर्माण अलग-अलग समय में हुआ है. पण्णवणा सूत्र श्यामार्यप्रणीत है. दशा, कल्प एवं व्यवहार सूत्र के प्रणेता चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्र बाहु हैं. निशीथसूत्र के प्रणेता आर्य भद्रबाहु या विशाखगणि महत्तर हैं. अनुयोगद्वारसूत्र के निर्माता स्थविर आर्यरक्षित हैं. नंदीसूत्र के कर्ता श्री देववाचक है. प्रकीर्णकों में गिने जाने वाले चउसरण, आउर पच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका के रचयिता वीरभद्र गणि हैं. ये आराधनापताका की प्रशस्ति के 'विक्कमनिवकालाओ अठुत्त रिमे समासहस्सम्मि' और 'अठ्ठत्तरिमे समासहस्सामि' पाठभेद के अनुसार विक्रम संवत् १००८ या १०७८ में हुए हैं. बृहट्टिप्पणिकाकार ने आराधनापताका का रचनाकाल 'आराधनापताका १०७८ वर्षे वीरभद्राचार्यकृता' अर्थात् सं० १०७८ कहा है. 'आराधनापताका' में ग्रंथकार ने 'आराहणाविहिं पुण भत्तपरिणाइ वण्णिमो पुब्बि' (गाथा ५१) अर्थात् 'आराधनाविधि का वर्णन हमने पहले भक्त. परिज्ञा में कर दिया है' ऐसा लिखा है. इस निर्देश से यह ग्रंथ इन्हीं का रचा हुआ सिद्ध होता है. आज के चउसरण एवं आउरपच्चक्खाणके रचना-क्रम को देखने से ये प्रकीर्णक भी इन्हीं के रचे हुए प्रतीत होते हैं. वीरभद्र की यह आराधना Jain Education memotional Janmerary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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