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________________ W wwwwwwwwwwwwww ७३२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय प्रमाण वृत्तियों की रचना की है. इनकी इन वृत्तियों और धर्मसंग्रहणी, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि की वृत्तिओं के अवगाहन से पता लगता है कि ये केवल जैन आगमों के ही धुरंधर ज्ञाता एवं पारंगत विद्वान् न थे अपितु गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं कर्मसिद्धान्त में भी पारंगत थे. इन्होंने मलयगिरिशब्दानुशासन नामक व्याकरण की भी रचना की थी. अपने वृत्तिग्रंथों में ये इसी व्याकरण के सूत्रों का उल्लेख करते हैं. इनके जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका ओघनियुक्तिटीका, विशेषावश्यकवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रटीका, धर्मसारप्रकरणटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरणटीका आदि कई ग्रन्थ आज प्राप्त नहीं हैं. इनकी कोई मौलिक कृति उपलब्ध नहीं है. देखा जाता है कि ये व्याख्याकार ही रहे हैं. व्याख्याकारों में इनका स्थान सर्वोत्कृष्ट है. (४८) श्रीचन्द्रसूरि (वि. १२-१३ श०)-श्री श्रीचन्द्रसूरि दो हुए हैं. एक मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरि के शिष्य, जिन्होंने संग्रहणीप्रकरण, मुनिसुव्रतस्वाभिचरित्र प्राकृत, लघुप्रवचनसारोद्धार आदि की रचना की है. दूसरे चन्द्रकुलीन श्रीशीलभद्रसूरि और धनेश्वरसूरि गुरुयुगल के शिष्य, जिन्होंने न्यायप्रवेशपञ्जिका, जयदेव छन्दःशास्त्रवृत्ति -टिप्पनक, निशीथचूणिटिप्पनक, नन्दिसूत्रहारिभद्री वृत्तिटिप्पनक, जीतकल्पचूणिटिप्पनक, पंचोपांगसूत्रवृत्ति, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, पिण्ड विशुद्धिवृत्ति आदि की रचना की है. यहाँ पर ये दूसरे थोचन्द्रसूरि ही अभिप्रेत हैं. इनका आचार्यावस्था के पूर्व में पार्श्वदेवगणि नाम था-ऐसा आपने ही न्यायप्रवेशपञ्जिका की अन्तिम पुष्पिका में सूचित किया है. (४६) श्राचार्य क्षेमकीर्ति (वि० १३३२)-ये तपागच्छ के मान्य गीतार्थ आचार्य थे. आचार्य मलयगिरिप्रारब्ध बृहकल्पवृत्ति की पूर्ति इन्होंने बड़ी योग्यता के साथ की है. आचार्य मलयगिरि ने जो वृत्ति केवल पीठिका की गाथा ६०६ पर्यन्त ही लिखी थी उसकी पूर्ति लगभग सौ वर्ष के बाद में इन्होंने वि० सं० १३३२ में की. इस वृत्ति के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं हुई है. बृहद्भाष्यकारादि [वि. ८ वीं श०]-यहां पर अनेकानेक प्राचीन स्थविरों का जो महान् आगमधर थे तथा जिनके पास प्राचीन गुरुपरम्पराओं की विरासत थी, संक्षेप में परिचय दिया गया. ऐसे भी अनेक गीतार्थ स्थविर हैं जिनके नाम का कोई पता नहीं है. कल्पबृहद्भाष्यकार आदि एवं कल्पविशेषणिकार आदि इसी प्रकार के स्थविर हैं जिनकी विद्वत्ता की परिचायक कृतियां आज हमारे सामने विद्यमान हैं. अवचूर्णिकारादि [वि० १२ श० से १८ श०] ऊपर जैन आगमों के 'धुरंधर स्थविरों का परिचय दिया गया है. इनके बाद एक छोटा किन्तु महत्त्व का कार्य करने वाले जो प्रकीर्णककार, अवचूणिकार आदि आचार्य हुए हैं वे भी चिरस्मरणीय हैं. यहा संक्षेप में इनके नामादि का उल्लेख कर देता हूँ१. पार्श्वसाधु [वि० सं० ६५६], २. वीरभद्रगणी [वि० सं० १०७८ में आराधनापताका, बृहच्चतुःशरण आदि के प्रणेता], ३. नमिसाधु [सं० ११२३], ४. नेमिचन्द्रसूरि [सं० ११२६], ५. मुनिचन्द्रसूरि [वि० १२वीं शताब्दी; ललित विस्तरापञ्जिका, उपदेशपदटीका, देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरणवृत्ति, अनेकसंख्यप्रकरण, कुलक आदि के प्रणेता], यशोदेवसूरि [सं० ११८०], ७ वि० जयसिंहसूरि [सं० ११८३, श्रावकप्रतिक्रमणचूणि के प्रणेता], ८. तिलकाचार्य [सं० १२९६], ९. सुमतिसाधु [वि० १३वीं श०], १०. पृथ्वीचन्द्रसूरि [वि. १३वीं श०], ११. जिनप्रभसूरि [सं० १३६४], १२. भुवनतुंगसूरि [वि० १४ वीं श०], १३. ज्ञानसागरसूरि [सं० १४४०], १४. गुणरत्नसूरि [वि. १५वीं श०], १५. रत्नशेखरसूरि [सं० १४६६], १६. कमलसंयमोपाध्याय [सं० १५४४], १७. विनयहंसगणी [सं० १५७२], १८. जिनहंससूरि [सं० १५८२], १६. हर्षकुल [सं० १५८३], २०. ब्रह्मर्षि [वि० १६वीं श०], २१. विजयविमलगणीवार्षि [सं० १६३४], २२. समयसुन्दरोपाध्याय [वि० १७ वीं श०] २३. धर्मसागरोपाध्याय [सं० १६३६], २४, पुण्यसागरोपाध्याय [सं० १६४५], २५. शान्तिचन्द्रोपाध्याय [सं० १६५०], २६. भावविजयगणि [वि०१७ वीं श०] २७ ज्ञानविमलसूरि [वि० १७वीं श०], २८. लक्ष्मीवल्लभगणि [वि० १७वीं श०], २६-३०. सुमतिकल्लोलगणि व हर्षनन्दनगणि [सं० १७०५, स्थानांग सूत्रवृत्तिगतगाथावृत्ति के रचयिता], ३१. नगर्षि [वि० १८ वीं श०] इत्यादि. इन विद्वान् आचार्यों ने जैन आगमों पर छोटी-बड़ी महत्त्व की वृत्ति, लवुवृत्ति, पंजिका, अवचूरि, अवचूणि, दीपिका, दीपक Jain Ede how.jalkelildrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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