SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 756
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनि श्रीपुण्यविजय : जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७२१ wwwwwwwwwwww (१३) कालिकाचार्य : (वीर नि० ६०५ के आसपास)-पंचकल्पमहाभाष्य के उल्लेखानुसार ये आचार्य शालिवाहन के समकालीन थे. इन्होंने जैनपरम्परागत कथाओं के संग्रहरूप प्रथमानुयोग नामक कथासंग्रह का पुनरुद्धार किया था. इसके अतिरिक्त गंडिकानुयोग और ज्योतिषशास्त्रविषयक लोकानुयोग नामक शास्त्रों का भी निर्माण किया था. जैन आगमग्रंथों की संग्रहणियों की रचना इन्हीं की है. जैन आगमों के प्रत्येक छोटे-छोटे विभाग में जिन-जिन विषयों का समावेश होता था उनका चीजरूप संग्रह इन संग्रहणी-गाथाओं में किया गया है. एक प्रकार से इसे जैन आगमों का विषयानुक्रम ही समझना चाहिए. आज यह संग्रह व्यवस्थितरूप में देखने में नहीं आता है, तथापि संभव है कि भगवती, प्रज्ञापना, आवश्यक आदि सूत्रों की टीकाओं में टीकाकार आचार्यों ने प्रत्येक शतक, अध्ययन, प्रतिपत्ति, पद आदि के प्रारम्भ में जो संग्रहणी-गाथाएँ दी हैं वे यही संग्रहणी-गाथाएँ हों. (१४) गुणधर (वीर नि० ६१४-६८३ के बीच)---दिगम्बर आम्नाय में आगमरूप से मान्य कसायपाहुड के कर्ता गुणधर आचार्य हैं. उनके समय का निश्चय यथार्थरूप में करना कठिन है. पं० हीरालालजी का अनुमान है कि ये आचार्य धरसेन से भी पहले हुए हैं, (१५) आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त व भूतबलि-(वीर नि० ६१४-६८३ के बीच ?) दिगम्बर आम्नाय में षट्खंडागम के नाम से जो सिद्धान्तग्रन्थ मान्य हैं उसका श्रेय इन तीनों आचार्यों को है. जिस प्रकार भद्रबाहु ने चौदहपूर्व का ज्ञान स्थूलभद्र को दिया उसी प्रकार आचार्य धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतबलि को श्रुत का लोप न हो, इस दृष्टि से सिद्धान्त पढ़ाया जिसके आधार पर दोनों ने षट्खण्डागम की रचना की. इनका समय वीरनिर्वाण ६१४ व ६८३ के बीच है, ऐसी संभावना की गई है. (१६, १७) आर्य मंच और नागहस्थि-कषायपाहुड की परम्परा को सुरक्षित रखने का विशेष कार्य इन आचार्यों ने किया और इन्हीं के पास अध्ययन करके आचार्य यतिवृषभ ने कसायपाहुड की चूणि की रचना की थी. इन आचार्यों को नंदीसूत्र की पट्टावली में भी स्थान मिला है. नंदीसूत्रकार ने आर्य मंगु और नागहस्ति का वर्णन इस प्रकार किया है : भणगं करगं झरगं पभावगं णाण-दसण-गुणाणं । वंदामि अज्जमंगु सुयसागरपारगं धीरं ॥२८॥ णाणम्मि दंसणम्मि य तव-विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जाणंदिलखमणं सिरसा बंदे पसण्णमणं ॥२६।। वड्डउ वायगवंसो जसवंसो अज्जणागहत्थीणं । वागरण-करण-भंगिय-कम्मप्पगडीपहाणाणं नंदीसूत्र के आर्य मंगु ही आर्य मंक्षु हैं, ऐसा निर्णय किया गया है. इससे विद्वानों का ध्यान इस ओर जाना आवश्यक है कि आज भले ही कुछ ग्रंथों को हम केवल श्वेताम्बरों के ही माने और कुछ को केवल दिगम्बरों के किन्तु वस्तुतः एककाल ऐसा था जब शास्त्रकार और शास्त्र का ऐसा साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ था. आर्य मंक्षु के विषय में एक खास बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनके कुछ विशेष मन्तव्यों के विषय में जयधवलाकार का कहना है कि ये परम्परा के अनुकूल नहीं (षट्खंडागम भा० ३ भूमिका पृष्ठ १५). (१८) प्राचार्य शिवशर्म : (वीर नि० ८२५ से पूर्व)-जैनधर्म की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता है उसके कर्मसिद्धान्त की. जिस प्रकार षट्खण्डागम और कसायपाहुड विशेषतः कर्मसिद्धान्त के ही निरूपक हैं उसी प्रकार शिवशर्म की कम्मपयडी और शतक कर्मसिद्धान्त के ही निरूपक प्राचीन ग्रंथ हैं. इनका समय भाष्य-चूर्णिकाल के पहले का अवश्य है. (१६, २०) स्कन्दिलाचार्य व नागार्जुनाचार्य (वीर नि० ८२७ से ८४०) ये स्थविर क्रमशः माथुरी या स्कान्दिली और BE TER Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy