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________________ Jain Educato wwwwwwwwmmmm ७२० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय वृत्ति में इस वृत्ति के प्रणेता पादलिप्त को कहा है. संभव है, आचार्य मलयगिरि के पास कोई अलग कुल की प्रतियाँ आई हों जिनमें मूलसूत्र और वृत्ति का आदि अन्तिम भाग छूट गया हो, जैसलमेर के तापीय संग्रह की ज्योतिष्करण्डक मूलसूत्र की प्रति में इसका आदि और अन्त का भाग नहीं है. आचार्य मलयगिरि को ऐसे ही कुल की कोई खंडित प्रति मिली होगी जिस से अनुसन्धानं कर के उन्होंने अपनी वृत्ति की रचना की होगी. इन आचार्य ने 'शत्रुंजयकल्प' की भी रचना की है. नागार्जुनयोगी इनका उपासक था. इसने इन्हीं आचार्य के नाम से शत्रुंजय महातीर्थ की तलहटी में पाइलिप्तनगर [पाली[लागा] बसाया था. ऐसी अनुभूति जैनग्रन्थों में पाई जाती है. - (११) आरक्षित (वीर नि० २८४ में दिवंगत ) स्वविर आयं वचस्वामी इनके विद्यागुरु थे. ये जैन आगमों के अनु योग का पृथक्त्व-भेद करनेवाले, नयों द्वारा होने वाली व्याख्या के आग्रह को शिथिल करनेवाले और अनुयोगद्वारसूत्र के प्रणेता थे. प्राचीन व्याख्यान पद्धति को इन्होंने अनुयोगद्वारसूत्र की रचना द्वारा शास्त्रबद्ध कर दिया है. ये श्री दुर्बलिका, पुष्यमित्र विन्ध्य आदि के दीक्षागुरु एवं शिक्षागुरु थे. यहाँ पर प्रसंगवश अनुयोग का पृथक्त्त्व क्या है, इसका निर्देश करना उचित होगा. 7 अनुयोगका पृथ कहा जाता है कि प्राचीन युग में जैन गीतार्थ स्थविर जैन आगमों के प्रत्येक छोटे-बड़े सूत्रों की वाचना शिष्यों को चार अनुयोगों के मिश्रण से दिया करते थे. उनका इस वाचना या व्याख्या का क्या ढंग था, यह कहना कठिन है फिर भी अनुमान होता है कि उस व्याख्या में - ( १ ) चरणकरणानुयोग जीवन के विशुद्ध आचार, (२) धर्मकयानुयोग – विशुद्ध आचार का पालन करनेवालों की जीवन- कथा, (३) गणितानुयोग - विशुद्ध आचार का पालन करनेवालों के अनेक भूगोलखगोल के स्थान और ( ४ ) द्रव्यानुयोग – विशुद्ध जीवन जीने वालों की तात्त्विक जीवन - चिन्ता क्या व किस प्रकार की हो, इसका निरूपण रहता होगा और वे प्रत्येकसूत्र की नया, प्रमाण व भंगजाल से व्याख्या कर उसके हार्दको कई प्रकार से विस्तृत कर बताते होंगे. समय के प्रभाव से बुद्धिबल व स्मरणशक्ति की हानि होनेपर क्रमश: इस प्रकारके व्याख्यान में न्यूनता आती ही गई जिसका साक्षात्कार स्थविर आर्य कालक द्वारा अपने प्रशिष्य सागरचन्द्र को दिये गये धूलिपुंज के उदाहरणसे हो जाता है. जैसे धूलिपुंज को एक जगह रखा जाय, फिर उसको उठाकर दूसरी जगह रखा जाय इस प्रकार उसी धूलिपुंज को उठा-उठाकर दूसरी दूसरी जगह पर रखा जाय. ऐसा करने पर शुरू का बड़ा धूलिपुंज अन्त में चुटकी में भी न आवे, ऐसा हो जाता है. इसी प्रकार जैन आगमोंका अनुयोग अर्थात् व्याख्यान कम होते-होते परम्परासे बहुत संक्षिप्त रह गया. ऐसी दशामें बुद्धिवल एवं स्मरणशक्ति की हानि के कारण जब चतुरनुयोग का व्याख्यान दुर्घट प्रतीत हुआ तब स्वविर आर्यरत चतुरनुयोग व्याख्यानके आग्रहको शिथिल कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने प्रत्येक सूत्र की जो नयों के आधार से तार्किक विचारणा आवश्यक समझी जाती थी उसे भी वैकल्पिक कर दिया. श्रीआर्यरक्षित के शिष्य प्रशिष्यों का समुदाय संख्या में बडा था. उनमें जो विद्वान् शिष्य थे उन सबमें दुर्बलिका पुष्यमित्र अधिक बुद्धिमान् एवं स्मृतिशाली थे. वे कारणवशात् कुछ दिन तक स्वाध्याय न करनेके कारण ११ अंग, पूर्वशास्त्र आदिको और उनकी नयगर्भित चतुरनुयोगात्मक व्याख्या को विस्तृत करने लगे. इस निमित्त को पाकर स्थविर आर्यरक्षित ने सोचा कि ऐसा बुद्धिस्मृतिसम्पन्न भी यदि इस अनुयोगको भूल जाता है तो दूसरेकी तो बात ही क्या ? ऐसा सोचकर उन्होंने चतुरनुयोग के स्थान पर सूत्रों की व्याख्या में उनके मूल विषय को ध्यान में रखकर किसी एक अनुयोग को ही प्राधान्य दिया और नयों द्वारा व्याख्या करना भी आवश्यक नहीं समझा. वक्ता व श्रोता की अनुकूलता के अनुसार ही नयों द्वारा व्याख्या की जाय, ऐसी पद्धति का प्रचलन किया. तदनुसार विद्यमान आगमों के सूत्रों को उन्होंने चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया जिससे तत् तत् सूत्र की व्याख्या केवल एक ही अनुयोग का आश्रय लेकर हो. जैसे आचार, दशवैकालिक आदि सूत्रों की व्याख्या में केवल चरणकरणानुयोग का ही आश्रय लिया जाय, शेष का नहीं. इसी प्रकार सूत्रों को कालिक- उत्कालिक विभाग में भी बांट दिया. vents day set Vamanently.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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