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________________ परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व : ७०३ यह बड़ा विद्वान् और पराक्रमी था. इसने अपने शत्रुओं से इस प्रदेश-मण्डल को जीता था और इस दुर्ग का नाम 'कीर्तिगिरि' रक्खा था. कीर्तिवर्मा चन्देलवंश का प्रतापी शासक था और शत्रुकुल को दलित करने वाला वीर योद्धा था, जैसा कि प्रबोधचन्द्रोदय नाटक के निम्न पद्य से प्रकट है: नीता क्षयं तितिभुजो नृपतेर्विपक्षा, रक्षावती क्षितिरभूतप्र वितरमात्यै । साम्राज्यमस्य विहितं क्षितिपालमौलि-मालाचितं भुवि पयोनिधिमेखलायाम् ।।३।। दूसरी नाहरघाटी के किनारे भी एक छोटा ७ पंक्तियों का अभिलेख अंकित है. यहां एक गुफा है, जिसे सिद्धगुफा भी कहा जाता है. यह भी पहाड़ में खुदी हुई है. जिसका मार्ग पहाड़ पर से सीढ़ियों द्वारा नीचे जाता है. इसके तीन द्वार हैं, दो खंभों पर छत भी अवस्थित है. इस गुफा के अन्दर भी गुप्त समय का छोटा-सा लेख अंकित है, जो संवत् ६०६ सन् ५५२ का बतलाया जाता है. इसमें सूर्यवंशी स्वामी भट्ट का उल्लेख है. यह लेख गुप्तकालीन है. एक दूसरा भी लेख है जिसमें लिखा है कि राजा वीर ने संवत् १३४२ में तुण को जीता था. इस सब कथन पर से जाना जाता है कि इसका देवगढ़ नाम विक्रम की १२वीं शताब्दी के अन्त में या १३वीं के प्रारम्भ में किसी समय हुआ है. यह स्थल अनेक राजाओं के राज्यकाल में अवस्थित रहा है. इस प्रान्त में पहले सहरियों का राज्य था, पश्चात् गौड़ राजाओं ने अधिकार कर लिया था. स्कन्दगुप्त आदि इस वंश के कई राजाओं के शिलालेख अब तक देवगढ़ में पाये जाते हैं. इनके बाद कन्नौज के भोजवंशी राजाओं ने इस प्रान्त को अपने अधिकार में किया था. इसके पश्चात् चंदेल वंशी राजाओं का इस पर स्वामित्व रहा. सन् १२६४ ई० में यह विशालनगर था. उस समय यह बहुत सुन्दर और सूर्य के प्रकाश के समान देदीप्यमान था. इसी वंश ने दतिया के किले का निर्माण कराया था. ललितपुर के आसपास इस वंश के अनेक लेख उपलब्ध होते हैं, इस वंश की राजधानी महोबा थी. इनके समय जनधर्म को पल्लवित होने का अच्छा अवसर मिला था. इस वंश के शासन-समय की अनेक कलाकृतियां, मन्दिर और जैन मूर्तियां महोबा, अहार, टीकमगढ़, मदनपुर, नावई और जखौरा आदि स्थानों पर पाई जाती हैं. महाराजा सिन्धिया की ओर से कर्नल वैयटिस्टि किलोज ने सन् १६२१ में देवगढ़ पर चढ़ाई की थी. उसने तीन दिन वराबर लड़ कर उस पर अधिकार कर लिया. चंदेरी के बदले में महाराज सिन्धिया ने देवगढ़ हिन्द-सरकार को दे दिया था. हो सकता है कि किले की दीवार चंदेलवंशी राजाओं ने बनवाई हो, परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. उसकी मोटाई १५ फुट की है जो विना सीमेंट के केवल पाषाण से बनी हुई है. नदी की ओर की हदबंदी की दीवाल बनी होगी, तो वह गिर गई होगी, या फिर वह बनवाई ही नहीं गई. परन्तु ऊँचाई कहीं भी २० फुट से अधिक नहीं है. उत्तरी पश्चिमी कोने से एक दीवार २१ फुट मोटी है, जो ६०० फुट तक पहाड़ी के किनारे चली गई है. संभवतः यह दीवार दूसरे किले की हो, जो अब विनष्ट हो चुका है. देवगढ़ का यह स्थान कितना सुरम्य और चित्ताकर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं. वेत्रवदी नदी के किनारेकिनारे दाहिनी तरफ मैदान अत्यन्त ढालू हो गया है. पहाड़ की विकट घाटी में उक्त सरिता सहसा पश्चिम की ओर मुड़ जाती है. वहां की प्राकृतिक सुषमा और कलात्मक सौंदर्य दोनों ही अपनी अनुपम छटा प्रदर्शित करते हैं. वहां दर्शकों को बैभव की असारता के स्पष्ट दर्शन होते हैं. जो स्पष्ट सूचित कर रहे हैं कि हे पामर नर ! तू वैभव के अहंकार में इतना क्यों इठला रहा है ? एक समय था जब हम भी गर्व में इठला रहे थे. उस समय हमें भावी परि राजोडुमध्यगतचन्द्रनिभस्य यस्य, नूनं युधिष्ठिर-शिव-रामचन्द्रः । एते प्रसन्नगुणरत्ननिधौं निविष्टा, यत्तद् गुणप्रकररत्नमये शरीरे ।। तदीयामात्यमन्त्री दो रमणीपरविनिर्गतः । वत्सराजेति विख्यात श्रीमान्महीधरात्मजः ।। ख्यातो बभूव किल मन्त्रपदैकमात्र, बाचस्पतिस्तदिह मन्त्रगुणेरुभास्याम् ।। योऽयं समस्तमपि मण्डलमाशु शत्रोराच्छिद्य कीर्तिगिरिदुर्गमिदं व्यवत्ते ।। संवत् ११५४ चैत्र बदि २ बुधौ, (देवगढ़ शिलालेख) org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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