SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *************** ३६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय राजस्थान के सन्तजन लोकभाषा के बहुत बड़े हिमायती रहे हैं. उन्होंने सदैव यह लक्ष्य अपने सामने रखा है कि जिस प्रांत में हमें जनता में जागृति उत्पन्न करनी है उस प्रांत में उसी भाषा में अपनी सतेज वाणी का प्रकाश करें. इस प्रकार राजस्थान के सन्तों ने जो संदेश दिये हैं वे निश्चय ही भारतीय संस्कृति को राजस्थानी सन्तों की अमर देन के रूप में सदैव उल्लेखनीय रहेंगे. इतनी भूमिका के बाद स्वामीजी म० की आचार्य परम्परा और सन्तपरम्परा का क्रमशः उल्लेख किया जाता है. चाचार्य श्रीजयमलजी म० आचार्य श्रीजयमलजी म० धर्मोद्धारक वीर पुरुष श्रीधर्मदासजी म० की परम्परा के ज्योतिर्धर सन्तरत्न थे. उन्होंने उफनते यौवन की तपती दुपहरी में ब्रह्मचर्य के कठोर व्रत को स्वीकार कर राजस्थान की वीर सन्तपरम्परा को गौरवा वित किया था. अपने कौटुम्बिक मोह को विश्व-प्रेम में परिवर्तित कर दिया था और माता सरस्वती के विनीत पुत्र के रूप में ज्ञान की अखंड लौ प्रज्वलित की थी. वे माता जिनवाणी की जीवनपर्यन्त त्याग, तपस्या, वैराग्य आदि के द्वारा उपासना करते रहे. आपका जन्म मरु-प्रदेश के लांबिया ग्राम में हुआ था. माता पिता का नाम क्रमशः महिमाबाई और मोहनदासजी था. एक संभ्रांत परिवार की कन्या ( श्री लक्ष्मी बाई ) के साथ इनका विवाह २२ वर्ष की अवस्था में हुआ था. द्विरागमन का समय नवविवाहितों के लिये उमंगों का गुलाल बरसाता हुआ-सा होता है. आपके यहाँ भी द्विरागमन होने वाला था. इसी बीच मेड़ता में आपको पूज्य श्रीभूधरजी म० का वैराग्यमूलक उपदेश श्रवण करने का स्वर्ण अवसर मिला. मुनिश्री के मुख से सुदर्शन सेठ के ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा का संगीत सुना. विचार बदले जीवन बदला. पूज्य श्री भूधरजी म० से दीक्षा प्रदान करने की विनती की. भूधर जी म० ने कहा- 'जीवन के महान् निर्णय को इस प्रकार सहसा कैसे कर रहे हो ?' जयमलजी ने कहा : 'निर्णय तो सहसा और एक साथ ही होते हैं. प्यास लगी हो तब पानी पीने के लिए सोचने-विचारने की आवश्यकता नहीं होती. अन्ततः मेड़ता में ही रहकर परिवार की अनुमति प्राप्त की, और सं० १७८७ की मगसिर कृष्णा द्वितीया को मुनि दीक्षा ग्रहण की. तो द्विरागमन का उल्लास भी संयमवीर के पथ का अवरोधक तत्त्व न बन सका. नवदीक्षित जयमल जी ने मुनिजीवन की साधना के साथ-साथ ही ज्ञानोपासना भी प्रारम्भ की. आगे चलकर लोकगीतों व सामाजिक रंगमंच पर प्रचलित धुनों की रागों में स्वानुभूतिमूलक विपुल साहित्य सृजन किया. इनके भक्ति, वैराग्य स्तुति, उपदेश एवं तात्त्विक विषयों के फुटकल पद आज राजस्थान के विभिन्न ज्ञानागारों में पाए जाते हैं. 'जयवाणी' के नाम से इनकी रचनाओं का एक बृहत् संग्रह सन् १९६० में आगरा से प्रकाशित हो चुका है. आचार्यश्री के जीवन और व्यक्तित्व के सम्बन्ध में डा० नरेन्द्र भानावत का प्रस्तुत ग्रंथ में प्रकाशित निबंध यथेष्ट प्रकाश डालता है. श्राचार्य श्रीरायचन्द्रजी उत्तराधिकार भौतिक और आध्यात्मिक दो प्रकार का होता है. भौतिक, चल-अचल सम्पत्ति के रूप में होता है, जब कि आध्यात्मिक उत्तराधिकार तप, त्याग एवं संयम का होता है. जिसको उत्तराधिकारी बनाया जाता है उसके विचार और आचार से यह प्रकट होता है. आचार्य श्रीजयमलजी ने संघ व्यवस्था का दायित्व रायचन्द्र जी को सं० १८४६ में युवाचार्य घोषित करके प्रदान कर दिया था. अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते समय आचार्यश्री ने संघ के समक्ष कहा 'मैं आज 'युवाचार्यपद रायचन्द्र जी को प्रदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy