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________________ ३४ : मुनि श्रोहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय 業蒸業茶業業蒸蒸来辦案辦辦業茶蒸茶葉辦業 कि धर्म की आत्मा आडंबर एवं दंभ के आवरण में छिप गई है ! उसे प्रकाश में लाना ही इस समय सबसे बड़ी शासनसेवा है. कहा जाता है कि इसके बाद लोंकाशाह ने काफी समय तक पद यात्रा करते हुये अपने विचारों का शंखनाद सर्वत्र सुनाया. उनके विचारों को आशातीत समर्थन मिला. आराध्य की मूर्ति स्थापित न करके एक स्थानविशेष में सामूहिक रूप में या व्यक्तिगत रूप में निराकार उपासना करने के कारण उनके अनुगामियों का सम्प्रदाय स्थानकवासी सम्प्रदाय कहलाया. इस अर्थ में जैनधर्म में साकार और निराकार—ये दोनों प्रकार के सम्प्रदाय हैं. स्थानकवासी सम्प्रदाय निराकार की उपासना में विश्वास रखता है. लोकाशाह के विचारांशों में संशोधन करके श्रीधर्मदासजी. श्रीलवजी ऋषि और श्रीधर्मसिंहजी इन तीन महापुरुषों ने इस सम्प्रदाय को संवद्धित और परिपुष्ट किया. तीनों धर्म-स्तंभों के विचार-आधार पर ही स्थानकवासी सम्प्रदाय टिका हुआ है. आचार्य श्रीजयमलजी म०, आचार्य श्रीधर्मदासजी म० की सम्प्रदाय की कड़ी थे. थीहजारीमलजी म. भी इसी संप्रदाय के एक उज्ज्वल रत्न थे. वि० की अठारहवीं शती में आचार्य श्रीरघुनाथजी महाराज से दयादान के सैद्धान्तिक प्रश्नों में विचार सामंजस्य स्थापित न होने के कारण श्रीभीखणजी स्वामी ने गुरु से सम्बन्ध तोड़कर स्वतंत्र सम्प्रदाय 'तेरापंथी' के नाम मे स्थापित किया. आचार्य श्रीजयमलजी महाराज श्रीभीखणजी के चचेरे गुरु थे. आचार्यश्री नहीं चाहते थे कि भीखणजी गुरु से विमुख हों. उन्होंने इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रयत्न किये और श्रीभीखणजी को समझाया भी, किन्तु वैसा न हो सका. श्रीहजारीमलजी महाराज अपने समाज और सम्प्रदाय के अत्यंत निष्ठावान् संत थे. वे कहते थे—'मनुष्य जिस समाज, सम्प्रदाय, धर्म और परिवार से जब तक अनुबंधित हो, उसके प्रति उसे ईमानदारी के साथ कर्तव्य करना चाहिये.' यह कहना उनका कोरा उपदेश ही नहीं था. व्यक्तिगत रूप से वे इस पर अत्यन्त दृढ़ भी थे. श्रीभीखणजी गणि की परंपरा के अष्टम आचार्य श्रीकालूगणि का बड़ी पादू (राजस्थान) में आगमन हुआ. उस समय पूज्य श्रीस्वामीजी महाराज भी पादू में ही विराजित थे. श्रीकालूगणिजी ने सोचा : 'हमारे आदिगुरु आचार्य श्रीभीखणजी स्वामी के चचेरे गुरु आचार्यश्री जयमलजी महाराज की सम्प्रदाय के बड़े सन्त प्रवर्तक श्रीहजारीमलजी म० यहीं विराजमान हैं. उनसे मिलना चाहिये.' उन्होंने अपने भक्तों से कहा—'स्थानकवासी मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज को यहाँ आने का निमंत्रण दे आओ.' भक्त निमंत्रण देने गये. प्रसंग यहाँ आकर अड़ गया—'कालूगणि मुनिश्री के निवास पर आयें या मुनिश्री कालूगणि के निवास पर जायें ?' मुनिश्री ने निर्णय दिया—'तेरापंथी' सम्प्रदाय में यह प्रचारित करने की प्रथा है कि कोई भी स्थानकवासी मुनि उस पक्ष के चाहने पर भी मिलता है तो यही प्रचारित किया जाता है कि स्थानकवासी मुनि कालगणि के दर्शन करने या दर्शनों का लाभ लेने आये. जैसे भी हो यह परंपरा आज तक रूप बदल कर चल रही है, अतः उनकी मिलने सम्बन्धी इस भावना की तो मैं कद्र करता हूँ मगर उनके निवास पर नहीं जा सकता. अच्छा यही है कि वे स्वयं ही यहां पधार जायें.' मिलने वाला जिससे मिलना चाहता रहा है वह उसके निवास पर जाकर ही उससे मिलता रहा है. और इस प्रकार से मिलना व्यवहार्य भी कहलाता है. एक दिन अन्य स्थान पर दोनों मुनियों का अत्यंत स्नेहपूर्ण मिलन हुआ. आचार्य श्रीजयमलजी म० की उदारता और सौहार्दभाव की चर्चा हुई. 'हम दोनों मूलत: चारित्रिक ऊर्जा के धनी आ० रघुनाथजी म. से संबंधित रहे हैं. कालगत दूरी अवश्य है. परन्तु स्नेहगत दूरी नहीं है !' इस प्रकार के वार्ता-प्रसंगों में उनकी मिलन-वेला प्रेमपूर्ण ढंग से संपन्न हुई. घटना. सं० १९६१, पादू (राज.) Jain Education Intemational Forvate & Persoll Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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