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________________ ५८६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय । वरणे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियटिस्सइ. तं नो खलु मे सेयं अभीईकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगववो महावीरस्स जाव पवइत्तए, सेयं खलु मे नियगं भाइणेज्ज केसिकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवश्रो जाव पब्वइत्तए, एवं संपेहेइ......तए णं से केसीकुमारे राया जाए महया जाव विहरति. तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं जाव सव्व दुक्खप्पहीणे. तए णं तस्स अभीइस्स कुमारस्स अन्नदा कयाइ पुन्धरत्तावरत्तकालसमयांसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अभथिए जाव समुप्पज्जित्या-एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते प्रभावती देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भाणिज्जं केसिकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स जाव पब्बइए. इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतपुर—परियालसंपरिवुड़े सभंडमत्तोवगरणमाए वीतीभयानो नयराश्रो पडिनिग्गच्छति—जेणेव चंपा नयरी जेणेव कुणिए राया तेणेव उवागच्छति---कुणियरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ. तए णं से अभीयी कुमारे समणोवासए यावि होत्था अभिगय जाब विहरइ--' (भगवती सूत्र पृ० ६१८-२०) उदायन की मृत्यु आवश्यक चूणि, टीका आदि ग्रंथों में उदायन की मृत्युविषयक विवरण इस प्रकार है : उदायन राजा के दीक्षा लेने के बाद रूखे-सूखे आहार से शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गई. वैद्यों ने उन्हें दही खाने को कहा. इसके लिये वे व्रज में ही रहने लगे. एक समय वे वीतिभय गये. वहां उनका भानजा केशीकुमार राज्य करता था. यह राज्य इन्होंने उसे दिया था. केशीकुमार को उसके दुष्ट मंत्रियों ने भरमा दिया कि 'यह उदायन भिक्षु-जीवन से ऊबकर अब पुनः राज्य प्राप्त करना चाहता है.' इस पर केशीकुमार ने कहा--अगर ऐसा ही है तो मैं उन्हें राज्य दे दूंगा. इस पर मंत्रियों ने कहा-'मिला हुआ राज्य कहीं इस प्रकार दिया जाता है ?' लम्बे समय तक मंत्रियों ने उसे खुब समझाया और राज्य न देने के लिये राजी किया. केशीकुमार ने मंत्रियों से पूछा तो अब क्या उपाय करना चाहिए ? मंत्रियों ने कहा-जहर देकर इसे मार डालना चाहिए. इस प्रकार केशीकुमार ने एक गोपालक के जरिये दही में जहर डलवा कर उदायन को खिला दिया. जिससे उदायन की मृत्यु हो गई. उदायन मुनि की इस प्रकार की मृत्यु से उनके एक मित्र देव को अत्यन्त क्रोध आया और साथ ही केशीकुमार की इस कृतघ्नता पर भी वह अत्यन्त क्रोधित हुआ. उसने धूल बरसा कर सारे नगर को नष्ट कर दिया. इस नगर-प्रलय में केवल एक कुम्भकार बचा जिसने राजाज्ञा की उपेक्षा कर उदायन मुनि को आश्रय दिया था. देव ने इसे उठाकर सिनवल्ली नामक स्थान में रख दिया. बाद में इसी स्थल पर इसी के नाम का एक नगर बसा था. वीतभय पत्तन धूलिप्रक्षेप के कारण छिप गया और आज भी वहां धूलि की बड़ी राशि मौजूद है. १. आवश्यक सूत्र टीका पृ० ५३७-७ देखो, प्राकृत कथासंग्रहगत उदायन की कथा : आचार्य हेमचन्द्र ने, महावीर के समय की घटित घटनाओं को तत्कालीन ग्रंथों एवं अनुश्रुतियों से संग्रहीत कर महावीर चरित्र में व्यवस्थित किया है. उदायन सम्बन्धी उल्लिखित सभी बातें लिखने के साथ-साथ उन्होंने एक नई घटना का भी उल्लेख किया है. वीतिभय पत्तन का देवकोप से नाश होने के बाद चन्दन की वह मूर्ति वहीं पर धूल के ढेर में दब गई थी. उस मूर्ति का आचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से कुमारपाल राजा ने उद्धार किया और पाटन में लाकर उसकी एक भव्य मन्दिर में प्रतिष्ठा की. इसी घटना से यह निश्चित हो जाता है कि वीतिभय का उद्ध्वस्त स्थान आचार्य हेमचन्द्र से अपरिचित नहीं था. इस उद्ध्वस्त स्थान में उन्हें एक मूर्ति मिली थी और उसकी प्रतिष्ठा पाटन में राजा कुमारपाल से करवाई थी. इस घटना पर विश्वास करने से यह ऐतिहासिक तथ्य अवश्य प्रकट होता है. इसी मूर्ति के प्रसंग में आचार्य हेमचन्द्र ने गुजरात की गौरवशाली राजधानी पाटन और कुमारपाल का जो आलंकारिक शब्दों में वर्णन दिया है वह लम्बा होने पर भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा इस दृष्टि से यहां दिया जा रहा है Jain Educatiom matio Srivate&Persohardse Orily www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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