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________________ डा० नथमल टाटिया : मोक्षमार्गस्य नेतारम् के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दि : ५६७ अपितु आचार्य विद्यानन्द तत्वार्थसूत्र के प्रथमसूत्र की उपपत्ति सिद्ध करने के प्रसंग में, 'वातिकं हि सूत्रानामनुपपत्तिचोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धम्'-बार्तिक के इस स्वीकृत लक्षण का अनुसरण करते हैं और अनुपपत्ति उपस्थापन प्रस्तुत करते हुए उसका उत्तर इस प्रकार देते हैं : ननु च तत्त्वार्थशास्त्रस्यादिसूत्रं तावदनुपपन्नं प्रवक्तृविशेषस्याभावेऽपि प्रतिपाद्य विशेषस्य च कस्यचित्प्रतिपित्सायामसत्यामेव प्रवृत्तत्वादित्यनुपपत्तिचोदनायामुत्तरमाह प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थे साक्षात्यक्षीणकल्मषे । सिद्ध मुनीन्द्रसंस्तुत्ये मोक्षमार्गस्य नेतरि । सत्यां तत्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकात्मनः । श्रेयसा योच्यमाणस्य प्रवृत्तं सूत्रमादिमम् । तेनोपपन्नमेवेति तात्पर्यम्.. आचार्य विद्यानन्द के सामने यदि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक उमास्वामिप्रणीत तत्त्वार्थसूत्र के आदि श्लोक के रूप में रहता तो इस स्थल में वे अवश्य उसकी ओर इंगित करते और उसी के आधार पर उत्तर देते. यहाँ यह बात ध्यानयोग्य है कि आचार्य विद्यानन्द के उक्त प्रश्नोत्तर के आधार पूज्यपाद देवनन्दि विरचित सर्वार्थसिद्धि के आदि में उपलब्ध 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक उसी सर्वार्थसिद्धि तथा आचार्य अकलंक प्रणीत तत्त्वार्थवार्तिक (राजवातिक) के प्रारंभिक वचन हैं, जो क्रमशः निम्न प्रकार हैं : (क) कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्सुः निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं पृच्छति स्म. (ख) उपयोगस्वभावस्यात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य प्रसिद्धी सत्यां तन्मार्गप्रतिपित्सोत्पद्यते. यह स्पष्टतया उद्धरण एक की तात्पर्य-व्याख्या है. यदि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक आचार्य उमास्वामिविरचित होता तो इस प्रसंग में आचार्य विद्यानन्द उस बात का निर्देश आवश्य करते. पर उसका मौन भाव सिद्ध करता है, यह श्लोक आचार्य उमास्वामिविरचित नहीं है. प्रष्टसहस्री तथा प्राप्तपरीक्षा के कुछ विशेष उल्लेख एवं प्राप्तमीमांसा स्वामी समन्तभद्र रचित आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलंक ने अष्टशती रची तथा अष्टशती पर आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री की रचना की. दो कारिकाओं में मंगलाचरण के समानन्तर आचार्य अकलंक आप्तमीमांसा के प्रथम श्लोक (देवागम-नभोयान) की उत्थानिक में लिखते हैं—देवागमेत्यादि-मंगलपुरस्सरस्तवविषयपरमाप्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिपतैव स्वयं श्रद्धागुणज्ञतालक्षणं प्रयोजनमाक्षिप्तं लक्ष्यते. तदन्यतरापायेऽर्थस्यानुपपत्तेः. शास्त्रन्यायानुसारितया तथवोपन्यासात् (पृ०२). इस वाक्य का विश्लेषण करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं, यहाँ ग्रंथ का प्रयोजन और साध्यसाधनसम्बन्ध बताये गये हैं. ग्रंथकारगत श्रद्धागुणज्ञतालक्षण 'प्रयोजन' है, तथा शास्त्रारम्भस्तवविषयाप्तगुणातिशयपरीक्षा 'साधन' है. ऐसा कह कर आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टसहस्री के मंगलस्तवान्तर्गत–'शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितम्' -इस पद्यांश को आचार्य अकलंक की उक्ति का अनुवाद-मात्र सिद्ध करते हैं, अर्थात् आचार्य विद्यानन्द के मत में आचार्य अकलंक भी देवागम-शास्त्र (आप्तमीमांसा) को शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्त की मीमांसा करने वाला मानते १. तत्वार्थ श्लोकवार्तिक, पृ० २. २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० ४. ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १. ४. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ०१ Jain Eucation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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