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________________ ५६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय शास्त्रप्रारम्भ में पर अपर परमेष्ठी की स्तुति मोक्षमार्गप्रणेतृत्त्वादि गुणों द्वारा करता है. उक्त उद्धरणगत श्रोता और व्याख्याता शब्द द्वारा आचार्य विद्यानन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि श्रोता तथा व्याख्याता दोनों शास्त्रश्रवण और शास्त्रव्याख्यान के पूर्व परापरपरमेष्ठी का गुणस्मरण करते हैं. उपरोक्त चर्चा का उद्देश्य केवल इतना ही सिद्ध करना है कि सूत्रकार शब्द का अर्थ नियमेन तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी तक सीमित नहीं है, पर प्रसंग की संगति के अनुरूप उसका अर्थ करना पड़ेगा. उदाहरणार्थ, आप्तपरीक्षा के निम्नोवत पाठ में सूत्रकार शब्द आचार्य उमास्वामी के सिवाय और किसी आचार्य का बोधक नहीं माना जा सकता - 'सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषजयचारित्रेभ्यो भवति इति सूत्रकारमतम् " परन्तस्वार्थका स्मास्वामिप्रभृतिभिः - इस प्रयोग में सूत्रकार शब्द से केवल आचार्य उमास्वामी का बोध स्वीकार नहीं किया जा सकता. यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है यदि मोक्षमार्गस्य नेवारम्' श्लोक आचार्य उमास्वामिविरचित तत्वार्थसूत्र के आदि में नहीं है तो उस श्लोक का कर्ता कौन है तथा आचार्य उमास्वामी का भगवद्गुणस्तोव कहां है? और आचार्य विद्यानन्द द्वारा अपनी आप्तपरीक्षा में पुनः पुनः आवृत्त सूत्रकारों द्वारा कहे गए गुणस्तोत्रविषयक निम्नोक्त कथनों का अभिप्राय क्या है ? उदाहणार्थ : ( क ) - . . तस्मात्ते मुनिपुंगवा : सूत्रकारादयः शास्त्रस्यादी तस्य परमेष्ठिनो गुणस्तोत्र माहु:. - ( पृ० ८ ) . ......... शास्त्रादौ परमेष्ठिगुणस्तोत्रम् ( ४०१ ). 1 ( ख ) -- ततः परमेष्ठिनः प्रसादात्सूचकाराणां पोमार्गस्य संसिद्धे इसका उत्तर यह है कि किसी सूत्रकार विशेष के गुणस्तोत्र - विशेष की विवक्षा यहां नहीं है. शास्त्र के आदि में भगवद्गुणसंस्तवन के औचित्य मात्र का निर्देश है. यदि किसी सूत्र के आदि में गुणस्तोत्र उपलब्ध न हो तो समझना होगा कि यह शास्त्र में निवड नहीं किया गया है. आप्तपरीक्षाकार ने भी कहा है-न क्वचित्तत् (भगवद्गुणसं स्तवनं ) न क्रियत इति वाच्यं तस्य शास्त्रे निबद्धस्यानिबद्धस्य मानसस्य वा वाचिकस्य वा विस्तरतः संक्षेपतो वा शास्त्रकारैरवश्यंकरणात्.' अर्थात् आचार्य उमास्वामी या अन्य किसी आचार्य विशेष की विवक्षा न रख कर शास्त्र के आदि में गुणस्तोत्र का सामान्य विधान यहां इष्ट है. आप्तपरीक्षा कारिका ३ ( मोक्षमार्गस्य नेतारम् श्लोक ) के रूप में यह गुणरतोष विशेष बताया गया है, जिसे ध्यान में रखकर यह सामान्य विधान किया गया है, और वही आप्तपरीक्षा का आधारभूत सूत्र है. इस श्लोक के प्रवक्ता का निर्देश शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुः के द्वारा उत्थानिका में किया गया है. पर श्लोकगत वन्दे पद के कर्ता को निर्देश करते हुए आचार्य विद्यानन्द लिखते हैं : 'तस्मान् मोक्षमार्गस्य नेतारं कर्मभूभृतां भेत्तारं विश्वतत्त्वानां ज्ञातारं वन्दे इति शास्त्रकारः शास्त्रप्रारम्भे श्रोता तस्य व्याख्याता वा भगवन्तं परमेष्ठिनं परमपरं वा मोक्षमार्गप्रणेतृत्वादिभिर्गुणैः संस्तौति, यत्प्रसादाच्छु योमार्गस्य संसिद्ध: समयंगात् (पृ० १३) इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि वन्दे पद के कर्ता के रूप में आप्तपरीक्षाकार को आचार्य उमास्वामी विवक्षित नहीं हैं, किन्तु तत्वार्थशास्त्र के श्रोता अथवा व्याख्यातारूप शास्त्रकार इष्ट हैं. ये शास्त्रकार और उक्त प्रवक्ता सूत्रकार यदि अभिन्न हैं, तो सूत्रकार शब्द से आचार्य उमास्वामी का विवक्षित होना संभव नहीं. तत्वार्थश्लोकवातिकगत अनुपपत्ति-उपस्थापन तथा परिहार उमास्वामिप्रणीत तत्वार्थसूत्र के किसी भी प्राचीन व्याख्याग्रन्थ के आदि में 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक की व्याख्या उपलब्ध नहीं है, न पूज्यपाद देवनन्दि स्वयं इसकी व्याख्या करते हैं न आचार्य अकलंक अपने तत्त्वार्थवार्तिक में इसका उल्लेख करते हैं, न आचार्य विद्यानन्द ही अपने श्लोकवार्तिक में. १. आप्तपरीक्षा, पृ० ६. Jain Edmational Use Only www.felibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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