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________________ कल्याणविजय गरिस : जैन श्रमणसंघ की शासनपद्धति : ५४६ पहले के कुल, गणों का सम्बन्ध विच्छेदकरण पूर्वक आगन्तुक साधु इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता--'आज से ये कुल-गण मेरे ही कुल गण हैं और इन कुल गण के आचार्य उपाध्याय ही मेरे आचार्य उपाध्याय हैं.' उपसंपद्यमान माधु की उक्त प्रतिज्ञा को ही 'उपसंपदा' कहते थे. इस उपसंपदा की काल-मर्यादा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से क्रमशः छह मास बारह वर्ष और जीवन पर्यन्त की होती थी. जघन्य और मध्यम काल की उपसंपदा वाले साधु मियाद पूरी होने पर अपने पहले गुरु के पास चले जाते थे, पर उत्कृष्ट कालीन उपसंपदा वाले श्रमण जीवन पर्यन्त उसी कुल गण में रहते थे. गणान्तरोपसंपदा लेने के बाद उस साधु को अपने पहले गुरु और गण की सामाचारी का त्याग और नये गण की सामाचारी का पालन करना पड़ता था. उपसंपदा के विषय में कई अपवाद भी रहते थे. यदि कोई गण बिल्कुल शिथिलाचार में फंस जाता और आचार्य उसका उद्धार नहीं करता अथवा आचार्य स्वयं ही शिथिलबिहारी हो जाता तो उस गण के जो संयमार्थी साधु होते, वे उस गण और गुरु का सम्बन्ध छोड़कर दूसरे चारित्रधारी गण में चले जाते थे और इस प्रकार शिथिलमार्ग को छोड़कर आने वाले आत्मार्थी साधुओं को उनके मूल गुरु की आज्ञा के बगैर भी उपसंपदा दे दी जाती थी. ४–साधर्म्य वैधर्म्य निर्वाह का मतलब सांभोगिक और असांभोगिक साधुओं की पारस्परिक रीतियों से हैं. अपने क्षेत्र में सांभोगिक गण के साधुओं के आने पर उनके प्रति तीन दिन तक आतिथ्य व्यवहार किया जाता था, आगन्तुक साधुओं के लिये तीन दिन तक भिक्षा वगैरह क्षेत्री (स्थानिक) साधु लाते थे. यदि आगन्तुक गण बड़ा होता और स्थानिक समुदाय छोटा होता अथवा ऐसा कोई कारण होता कि जिससे सर्व कार्य करना स्थानिक साधुओं के लिये कठिन हो जाता तो आगन्तुक गण में जो युवा और समर्थ साधु होते उनकी भी थोड़ी मदद ली जाती थी, पर बाल और वृद्ध साधुओं से तो तीन दिन तक कुछ भी मेहनत का काम नहीं लिया जाता था. इसी प्रकार असांभोगिक गण के अपने क्षेत्र में आने पर भिक्षाचर्या में उनके साथ जाना, उनको स्थापना-कुल वगैरह का परिचय देना, आदि आवश्यक व्यवहार का निर्वाह करना पड़ता था. सांभोगिक गणों में तो एक सामाचारी होने से सामाचारी-भेद सम्बन्धी प्रश्न उपस्थित ही नहीं होते थे, पर असांभोगिक गणों की सामाचारी के सम्बन्ध में कभी-कभी चर्चा चलती भी थी तो उस पर समभाव से विचार किया जाता था और जिस विषय में जिस गण अथवा कुल का जो मन्तव्य होता उसका उसी रूप में निर्देश करके शिष्यों को समझाया जाता कि 'इस विषय में अमुक कुल अथवा गण वाले ऐसा मानते हैं' अथवा 'इस सम्बन्ध में अमुक 'आचार्य का यह मत है.' व्यवहारछेदन—'व्यवहार' का अर्थ है 'मुकद्दमा' और 'छेदन' का तात्पर्य है फैसला'. श्रमणगणों में दो प्रकार के व्यवहार होते थे-'प्रायश्चित्तव्यवहार' और 'आभवद्व्यवहार.' साधु लोग अपने मानसिक, वाचिक और कायिक अपराधों के बदले जो आचार्य द्वारा सजा (दण्ड) पाते थे उसका नाम 'प्रायश्चित्त-व्यवहार' है. इस व्यवहार के महावीर के समय में-१-आलोचना २-प्रतिक्रमण ३–मिश्र ४--विवेक ५-उत्सर्ग ६-तप ७-छेद 5-मूल 8-अनवस्थाप्य और १०-पाराञ्चित ऐसे दस प्रकार थे, जो आर्य भद्रबाहु पर्यन्त चलते रहे. भद्रबाहु के स्वर्गवास के बाद प्रायश्चित्त का 8 वां और १०वां भेद बन्द कर दिया गया और तब से प्राथमिक ८ प्रायश्चित्तों का ही व्यवहार प्रचलित है. 'आभवद्व्यवहार' का अर्थ है 'हकदारी का झगड़ा'. इस व्यवहार के भी अनेक प्रकार होते थे जैसे सचित व्यवहार, अचित व्यवहार, मिश्र-व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, इत्यादि. उपर्यक्त दो प्रकारों में से पहला व्यवहार तो बहुधा अपने-अपने स्थविरों के निकट ही चलता था. कुल के साधु अपनेअपने कुल के स्थविर से प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि कर लिया करते थे, पर छेद अथवा मूल जैसे मामलों का फैसला Jain Edt
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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