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________________ डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : २१३ दुखी या अभावग्रस्त को देख कर उसके प्रति करुणा या सहानुभूति प्रगट करना और उसके दुख को दूर करने के लिये यथाशक्ति सहायता देना. इससे आत्मा में उदारता, मंत्री आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है. साधु-साध्वी को दिया जाने वाला दान सुपात्र दान कहलाता है. ग्यारह प्रतिमायें लम्बे समय तक व्रतों का पालन करता हुआ श्रावक पूर्ण त्याग की ओर अग्रसर होता है. उत्साह बढ़ने पर एक दिन कुटुम्ब का उत्तरदायित्व सन्तान को सौंप देता है और पौषधशाला में जाकर सारा समय धर्मानुष्ठान में बिताने लगता है. उस समय वह उत्तरोत्तर साधुता की ओर बढ़ता है. कुछ दिनों तक अपने घर से भोजन मंगाना है और फिर उसका भी त्याग करके भिक्षा पर निर्वाह करने लगता है, इन व्रतों को ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में प्रगट किया गया है. प्रतिमा शब्द का अर्थ है सादृश्य. जब श्रावक साधु के सदृश होने के लिये प्रयत्नशील होता है तो उसका आचार, प्रतिमा कहा जाता है. इन की विस्तृत चर्चा के लिये उपासकदांश सूत्र का आनंद अध्यन देखना चाहिए. संलेखना वत श्रमण परम्परा जीवन को अपने आप में लक्ष्य नहीं मानती. उसका कथन है कि साधना का लक्ष्य आत्मा का विकास है और जीवन उसका साधन मात्र है. जिस दिन यह प्रतीत होने लगे कि शरीर शिथिल हो गया है, वह धर्म साधना में सहायक होने के स्थान पर विघ्न-बाधाएं उपस्थित करने लगा है तो उस समय यह उचित है कि उसका परित्याग कर दे. इसी परित्याग को अंतिम संलेखना व्रत कहा है. इसमें श्रावक या साधु आहार का परित्याग करके धर्मचिंतन में लीन हो जाता है, न जीवन की आकांक्षा करता है, न मृत्यु की, न यश की, न ऐहिक या पारलौकिक सुखों की धन, सम्पत्ति, परिवार, शरीर आदि सबसे अनासक्त हो जाता है. इस प्रकार आयुष्य पूरा होने पर शान्ति तथा स्थिरता के साथ देह का परित्याग करता है.. इस व्रत को आत्म हत्या समझना भूल है. व्यक्ति आत्म हत्या तब करता है जब किसी कामना को पूरा नहीं कर पाता और वह इतनी बलवती हो जाती है कि उसकी पूर्ति के विना जीवन बोझ जान पड़ता है और उस बोझ को उतारे विना शांति असम्भव प्रतीत होती है. आत्म हत्या का दूसरा कारण उत्कट वेदना या मार्मिक आघात होता है. दोनों परिस्थितियां व्यक्ति की निर्बलता को प्रगट करती है. इसके विपरीत संलेखना त्याग की उत्कटता तथा हृदय की परम दृढ़ता को प्रगट करती है. जहाँ व्यक्ति विना किसी कामना के शान्तिपूर्वक अपने आप जीवन का उत्सर्ग करता है. आत्म-हत्या निराशा तथा विवशता की पराकाष्ठा है, संलेखना वीरता का वह उदात्त रूप है जहां एक सिपाही हंसते-हंसते प्राणों का उत्सर्ग कर देता है. सिपाही में आवेश रहता है किन्तु संलेखना में वह भी नहीं होता. इस व्रत के पाँच अतिचार निम्नलिखित हैं : १. घन, परिवार आदि इस लोक सम्बन्धी किसी वस्तु की आकांक्षा करना. २. स्वर्ग सुख आदि परलोक से सम्बन्ध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना. ३. जीवन की आकांक्षा करना. ४. कष्टों से घबरा कर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना. ५. अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम-भोगों की आकांक्षा करना. उपसंहार संलेखना तक जिन व्रतों का यहाँ प्रतिपादन किया गया है वे एक आदर्श गृहस्थ की चर्या प्रगट करते हैं. उपासकदशाँग सूत्र के प्रथम अध्ययन में इन सबका विस्तृत वर्णन है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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