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________________ -0--0--0--0--0-0-0--0-0-0 २१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय १०. विलेपन केसर, चन्दन, तेल आदि लेप किये जाने वाले द्रव्यों की मर्यादा. ११. अब्रह्मचर्य-मैथुन सेवन की मर्यादा. १२. दिशि-ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं में यातायात तथा अन्य प्रवृत्तियों की मर्यादा. १३. स्नान-स्नानों की संख्या तथा जल की मर्यादा. १४. भक्त-चार प्रकार के आहार की मर्यादा. इस व्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं : १. श्रानयनप्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मंगाने के लिये किसी को भेजना. २. प्रेष्यप्रयोग-नौकर, चाकर आदि को भेजना. ३. शब्दानुपात-किसी प्रकार के शाब्दिक संकेत द्वारा बाहर की वस्तु मंगाना. ४. रूपानुपात--हाथ आदि का इशारा करना, ५. पुदगलप्रक्षेप-कंकर, पत्थर आदि फेंक कर किसी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना. पौषधोपवास व्रत 'पौषध' शब्द संस्कृत के उपवषथ शब्द से बना है. इसका अर्थ है धर्माचार्य के समीप या धर्मस्थान में रहना. उपवषथ अर्थात् धर्म स्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास व्रत है. यह दिन-रात अर्थात् आठ प्रहरों का होता है और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों पर किया जाता है. इस व्रत में नीचे लिखा त्याग किया जाता : १. भोजन, पानी आदि चारों प्रकार के आहारों का त्याग. २. अब्रह्मचर्य का त्याग. ३. आभूषणों का त्याग. ४. माला, तेल आदि सुगंधित द्रव्यों का त्याग. ५. समस्त सावद्म अर्थात् दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग. इसके पांच अतिचार निवास स्थान की देखरेख एवं प्रभार्जन के साथ संबंध रखते हैं. अतिथिसंविभाग व्रत संविभाग का अर्थ है अपनी सम्पत्ति एवं भोग्य वस्तुओं में विभाजन करना अर्थात् दूसरे को देना. अतिथि के लिये किया जाने वाला विभाजन अतिथि संविभाग है. वैदिक परम्परा में भी अतिथिसेवा गृहस्थ के प्रधान कर्तव्यों में गिनी गई है किन्तु जैन-परम्परा में अतिथि शब्द का विशिष्ट अर्थ है. यहाँ निर्दोष जीवन व्यतीत करने वाले साधुओं को ही अतिथि माना गया है. उन्हें भोजन, पानी वस्त्र आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है. इसके नीचे लिखे पांच अतिचार हैं : १. सचित्तापिधान-साधु के ग्रहण करने योग्य निर्दोष आहार में कोई सचित्त वस्तु मिला देना जिससे वह ग्रहण न कर सके. २. सचित्तपिधान-देने योग्य वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंकना. ३. कालातिक्रम-भोजन का समय व्यतीत होने पर निमंत्रित करना. ४. परव्यपदेश-न देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी बताना. ५. मात्सर्य-मन में ईर्ष्या या दुर्भावना रखकर दान देना. जैनधर्म में दान के दो रूप हैं--अनुकम्पादान और सुपात्र दान. अनुकम्पा सम्यक्त्व का अंग है. इसका अर्थ है प्रत्येक AMETHORE Jain Education G/.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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