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________________ ५०८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : द्वितीय अध्याय लिए साधु सम्पत्ति का सर्वथा त्याग करता है और भिक्षा पर जीवन निर्वाह करता है. साधु वस्त्र—आदि उपकरणों की तरह अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं करता. श्रावक भी उसी लक्ष्य को आदर्श मानता है किन्तु लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मर्यादित सम्पत्ति रखता है. आज मानव भौतिक विकास को अपना लक्ष्य मान रहा है. वह 'स्व' के लिये सम्पत्ति के स्थान पर सम्पत्ति के लिये 'स्व' को मानने लगा है. भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये समस्त आध्यात्मिक गुणों को तिलांजलि दे रहा है. परिणाम-स्वरूप तथाकथित विकास विभीषिका बन गया है. परिग्रह परिमाण व्रत इस बात की ओर संकेत करता है कि जीवन का लक्ष्य बाह्य सम्पत्ति नहीं है. इस व्रत का महत्त्व एक अन्य दृष्टि से भी है. संसार में सोना, चांदी, भूमि, अन्न, वस्त्रादि सम्पत्ति कितनी भी हो, पर वह अपरिमित नहीं है. यदि एक व्यक्ति उसका अधिक संचय करता है तो दूसरे के साथ संघर्ष होना अनिवार्य है. इसी आधार पर राजाओं और पूंजीपतियों में परस्पर चिरकाल से संघर्ष चले आ रहे हैं, जिनका भयंकर परिणाम साधारण जनता भुगतती आ रही है. वर्तमान युग में राजाओं और व्यापारियों ने अपने-अपने संगठन बना लिये हैं और उन संगठनों में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चलती रहती है. यह सब अनर्गल लालसा और सम्पत्ति पर किसी प्रकार की मर्यादा न रखने का परिणाम है. इसी असन्तोष की प्रतिक्रिया के रूप में रूस ने राज्य-क्रान्ति की और सम्पत्ति पर वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया. दूसरी ओर भूपतियों की सत्ता-लालसा और परिणामस्वरूप होने वाले भयंकर युद्धों को रोकने वाले लोकतन्त्री शासन-पद्धति प्रयोग में लाई गई. फिर भी समस्याएं नहीं सुलझी. जब तक व्यक्ति नहीं सुधरता, संगठनों से अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता. क्योंकि संगठन व्यक्तियों के समूह का ही नाम है. परिग्रहपरिमाण व्रत वैयक्तिक जीवन पर स्वेच्छा से अंकुश रखने के लिये कहता है. इसमें नीचे लिखे नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा का विधान है : १. क्षेत्र-(खेत) अर्थात् उपजाऊ भूमि की मर्यादा. २. वस्तु-मकान आदि. ३. हिरण्य-चांदी. ४. सुवर्ण-सोना. ५. द्विपद-दास, दासी. ६. चतुष्पद-गाय, भैस घोड़े आदि पशुधन. ७. धन–रुपये पैसे सिक्के या नोट आदि. ८. धान्य-अन्न, गेहूँ, चावल आदि खाद्य-सम्पति. ६. कुप्य या गोप्य-तांबा, पीतल आदि अन्य धातुएं. कहीं कहीं हिरण्य में सुवर्ण के अतिरिक्त शेष सब धातुएं ग्रहण की गई हैं और कुप्य या गोप्य धन का अर्थ किया है हीरे, माणिक्य, मोती रत्न आदि. इस व्रत के अतिचारों में प्रथम आठ को दो-दो की जोड़ी में इक्ट्ठा कर दिया गया है और नवें को अलग लिया गया है, इस प्रकार नीचे लिखे पांच अतिचार बताये गये हैं : १. क्षेत्र-वास्तु परिमाणातिक्रम. २. हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम. ३. द्विपद-चतुष्पदपरिमाणातिक्रम. ४. धन-धान्यपरिमाणातिक्रम. १. कुप्यपरिमाणातिक्रम. OMWants -CR4 ___Jain EduTE membrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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