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________________ Jain Edu डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : ५०७ प्रचीयं प्रत श्रावक का तीसरा व्रत अचौर्य है. वह स्थूल चोरी का त्याग करता है. इसके नीचे लिखे रूप हैं : दूसरे के घर में सेंध लगाना, ताला तोड़ना या अपनी चाभी लगा कर खोलना, विना पूछे दूसरे की गांठ खोल कर चीज निकालना, यात्रियों को लूटना अथवा डाके मारना. इस व्रत के पांच अतिचार नीचे लिखे अनुसार हैं : १. स्तेनाहृत -चोर के द्वारा लाई गई चोरी की वस्तु खरीदना या घर में रखना. २. तस्करप्रयोग - आदमी रख कर चोरी, डकैती, ठगी आदि कराना. ३. विरुद्वराज्यातिक्रम — भिन्न-भिन्न राज्य वस्तुओं के आयात-निर्यात पर कुछ बन्धन लगा देते हैं अथवा उन पर कर आदि की व्यवस्था कर देते हैं. राज्य के ऐसे नियमों का उल्लंघन करना विरुद्ध राज्यातिक्रम है. ४. कूटतुला कूटमान- -नाप तथा तोल में बेईमानी करना. २. तत्प्रतिरूपक व्यवहार-वस्तु में मिलावट करना या अच्छी वस्तु दिखा कर बुरी वस्तु देना. सत्य तथा अचौर्य व्रत के अतिचारों का व्यापार तथा व्यवहार में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह बताने की आवश्यकता नहीं. स्वदारसन्तोष व्रत श्रावक का चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है. इसमें वह परायी स्त्री के साथ सहवास का परित्याग करता है और अपनी स्त्री के साथ उसकी मर्यादा स्थिर करता है. यह व्रत सामाजिक सदाचार का मूल है और वैयक्तिक विकास के लिये भी अत्यावश्यक है. इसके पाँच अतिचार निम्न हैं: १. इcate परिग्रहीतागमन - ऐसी स्त्री के साथ सहवास करना जो कुछ समय के लिये ग्रहण की गई हो. भारतीय संस्कृति में विवाह संबन्ध समस्त जीवन के लिये होता है. ऐसी स्त्री भोग और त्याग दोनों में सहयोग देती है जैसा कि आनन्दादिक श्रावकों की पत्नियों के जीवन से सिद्ध होता है. इसके विपरीत, जो स्त्री कुछ समय के लिये अपनाई जाती है वह भोग के लिये होती है, वह जीवन के उत्थान में सहायक नहीं हो सकती. श्रावक को ऐसी स्त्री से गमन नहीं करना चाहिए. २. अपरिगृहीतनमन वंश्या आदि के साथ सहवास ३. ग्रनंगक्रीड़ा —– अप्राकृतिक मैथुन अर्थात् सहवास के प्राकृतिक अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से सहवास करना. ४. परविवाहकरण -- दूसरों का परस्पर संबन्ध कराना. ५. कामभोगतीवाभिलाष—विषय भोग तथा काम-क्रीड़ा में तीव्र आसक्ति. परविवाहकरण अतिचार होने पर भी श्रावक के लिये उसकी मर्यादा निश्चित है. अपनी सन्तान तथा आश्रित जनों का विवाह करना उसका उत्तरदायित्व है. इसी प्रकार पशुधन रखने वाले को गाय, भैंस आदि पशुओं का संबन्ध भी कराना पड़ता है, श्रावक को इसकी छूट है. अपरिग्रह परिमाण - व्रत इसका अर्थ है श्रावक को अपनी धन-सम्पत्ति की मर्यादा निश्चित करनी चाहिए और उससे अधिक सम्पत्ति न रखनी चाहिए. सम्पत्ति हमारे जीवन निर्वाह का एक साधन है. साधन वहीं तक उपादेय होता है जहाँ तक वह अपने साध्य की पूर्ति करता है. संपत्ति सुख के स्थान पर दुखों का कारण बन जाती है और आत्म-विकास को रोकती है अतः हेय है. इसी se ary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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