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________________ डा. इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म: १०५ -----------------0-0 जैन का अर्थ है वह व्यक्ति, जो जैन-सिद्धांतों में विश्वास रखता है. जो व्यक्ति मांसाहारी वैश्यागमन आदि को नहीं छोड़ता फिर भी जैन-सिद्धांत में अनुराग रखता है, उसे अपने आप को जैन कहने का अधिकार है, श्रावक, साधु तथा वीतराग की श्रेणियाँ उसके ऊपर हैं. मांसाहार बुरा होने पर भी करने या छोड़ने मात्र से कोई जैन या अजैन नहीं बनता. यह बात प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा और उत्साह पर निर्भर है कि वह त्याग के मार्ग पर कितना आगे बढ़ता है. साधु प्राण-संकट आने पर भी दूसरे की हिंसा नहीं करता, उसकी चर्या निरपवाद है, किन्तु श्रावक को आवश्यकतानुसार छूट रहती है. वह अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार ही व्रतों का पालन करता है. यदि वह मांसाहार को बुरा समझता है और प्राण-सकट आने पर भी उस ओर नहीं जाना चाहता तो वह उच्चादर्श है यदि इतनी शक्ति या साहस नहीं है तो हेय समझता हुआ भी वह उसका सेवन करेगा, किन्तु जब तक जैन-सिद्धांतों पर उसका विश्वास अक्षुण्ण है तब तक उसे जैन ही कहा जायेगा. त्याग का सर्वोत्कृष्ट रूप तीन करण तीन योग से है. अर्थात् जहाँ साधक यह निश्चय करता है कि मैं किसी सावध प्रवृत्ति को मन, वचन और काया से न स्वयं करूंगा, न स्वयं कराऊँगा, और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा. इस प्रकार का त्याग साधु का ही होता है क्योंकि वह सांसारिक उत्तरदायित्व को छोड़ कर एकान्त आत्मचिन्तन में लीन रहने लगता है. परिवार या समाज से किसी प्रकार का लौकिक सम्बन्ध नहीं रखता, श्रावक का त्याग निम्न कोटि का होता है. बहुत से कार्य वह अपने हाथ से नहीं करता किन्तु दूसरे से कराने की छूट रखता है. बहुत से ऐसे हैं जो न करता कराता है किन्तु उनके अनुमोदन का त्याग नहीं करता. त्याग की इन कोटियों को लक्ष्य में रख कर शास्त्र में ४६ भंग किये गये हैं. सबसे स्थूल त्याग है एक करण एक योग अर्थात् अपने हाथ से स्वयं न करना. इसी प्रकार एक करण दो योग, एक करण तीन योग, दो करण एक योग आदि भंग बताये गये हैं. श्रावक प्रायः दो करण तीन योग से त्याग करता है अर्थात् मन वचन और काया से स्वयं नहीं करता तथा दूसरे से नहीं कराता, उसे अनुमोदन करने का परित्याग नहीं होता. श्रावक अपने प्रथम अणुव्रत में यह निश्चय करता है कि मैं निरपराध त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूंगा अर्थात् उन्हें जान-बूझ कर नहीं मारूंगा. इस व्रत के पाँच अतिचार हैं जिनकी तत्कालीन श्रावक के जीवन में सम्भावना बनी रहती थी वे इस प्रकार हैं१. बन्ध–पशु तथा नौकर चाकर आदि आश्रितजनों को कष्टदायी बन्धन में रखना. यह बन्धन शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक प्रकार का हो सकता है. २. वध-उन्हें बुरी तरह पीटना. ३. छबिच्छेद-उनके हाथ, पांव आदि अंगों को काटना. ४. अतिभार----उन पर अधिक बोझ लादना. नौकरों से अधिक काम लेना भी अतिभार है. ५. भक्तपानविच्छेद-उन्हें समय पर भोजन तथा पानी न देना. नौकर को समय पर वेतन न देना जिससे उसे तथा घर वालों को कष्ट पहुँचे. सत्य-व्रत श्रावक का दूसरा व्रत मृषावाद-विरमण अर्थात् असत्यभाषण का परित्याग है. उमास्वाति ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि 'असदभिधानमनृतम्' असदभिधान के तीन अर्थ हैं (१) असत् अर्थात् जो बात नहीं है उसका कहना. (२) बात जैसी है उसे वैसी न कह कर दूसरे रूप में कहना, एक ही तथ्य को ऐसे रूप में भी उपस्थित किया जा सकता है जिससे सामने वाले पर अच्छा प्रभाव पड़े. उसी को बिगाड़ कर रक्खा जा सकता है जिससे सामने वाला नाराज हो जाय. सत्यवादी का कर्तव्य है कि वस्तु को वास्तविक रूप में रखे, उसे बनाने या बिगाड़ने का प्रयत्न न करे. (३) इसका तीसरा अर्थ है असत्-बुराई या दुर्भावना को लेकर किसी से कहना. यह EMPERATr 0.03 RATRAINERY NEINEIRERENDINEISENSSIREN ENOSENUSENOSNorg
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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