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________________ ५०४ : मुनि श्रीहजारील स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ३. मुदिता -- जो व्यक्ति विद्या, त्याग अथवा किसी अन्य गुण के कारण आगे बढ़ा हुआ है उसे देख कर प्रायः हमारे मन में असूया उत्पन्न होती है. अर्थात् हम उसमें दोष निकालने का प्रयत्न करते हैं. यदि वह त्यागी है तो उसे ढोंगी कहने लगते हैं, यदि विद्वान है तो रट्टू- इसी प्रकार समाज-सेवक, नेता, दानी आदि प्रत्येक में कोई न कोई दोष निकासने की चेष्टा की जाती है. यह एक प्रकार की असहिष्णुता है और छिपी हुई हिंसा का बाह्य रूप है. इसे दूर करने के लिए गुणी को देखकर प्रसन्न होने की आदत होनी चाहिए. उसे देखकर झुक जाना और उसके गुणों को अपने में लाना मुदिता है दोष और गुण प्रत्येक व्यक्ति में रहते हैं, हमारा ध्यान गुणों की ओर जाना चाहिए, दोषों की ओर नहीं. ४. उपेक्षा — जो व्यक्ति हमारे प्रतिकुल चलता है, हमसे शत्रुता करता है, हमें हानि पहुँचाने की चेष्टा करता है, उसके प्रति भी द्वेष न कर के तटस्थ वृत्ति रखना उपेक्षा है. इन चार भावनाओं से क्रमश: ईर्ष्या, घृणा, असूया और द्वेष पर विजय प्राप्त होती है. ये सब आत्मा के मल हैं और उसे अशान्त बनाये रखते हैं. अहिंसा और कायरता अहिंसा पर प्रायः आक्षेप किया जाता है कि यह कायरता है. शत्रु के सामने आने पर जो व्यक्ति संघर्ष की हिम्मत नहीं रखता, वही अहिंसा को अपनाता है; किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है. कायर वह होता है जो मन में प्रतिकार की भावना होने पर भी प्रत्याक्रमण करने से डरता है. ऐसे व्यक्ति का आक्रमण न करना या शत्रु के सामने झुक जाना अहिंसा नहीं है, वह तो आक्रमण से भी बड़ी हिंसा है. महात्मा गांधी का कथन है कि आक्रमक या क्रूर व्यक्ति विचारों में परिवर्तन होने पर अहिंसक बन सकता है किन्तु कायर के लिये अहिंसक बनना असम्भव है. अहिंसा की पहली शर्त शत्रु के प्रति मित्रता या प्रेम भावना है. छोटा बालक बहुत-सी वस्तुएं तोड़-फोड़ डालता है, माता को उससे परेशानी होती है, किन्तु वह मुस्करा कर टाल देती है. बालक के भोलेपन पर उसका प्रेम और भी बढ़ जाता है. मित्रता या प्रेम की यह पहली शर्त है दूसरे के द्वारा हानि पहुँचाने पर क्रोध न आना प्रत्युत उपस्थित किये गये कष्टों, झंझटों तथा हानियों से संघर्ष करने में अधिकाधिक आनन्द अनुभव करना. अहिंसक शत्रु से डर कर शत्रु को क्षमा नहीं करता किन्तु उसकी भूल को दुर्बलता समझ कर क्षमा करता है. अहिंसा की इस भूमि पर बने ही पहुंचते हैं. जो व्यक्ति पूर्णतया अपरिग्रही हैं, अर्थात् जिन्हें धन-सम्पत्ति मान-अपमान तथा अपने शरीर से भी ममत्व नहीं है, जो समस्त स्वार्थी को त्याग चुके हैं वे ही ऐसा कर सकते हैं. दूसरों के लिये अहिंसा ही दूसरी कोटि है कि निरपराध को दण्ड न दिया जाय किन्तु अपराधी का दमन करने के लिये हिंसा का प्रयोग किया जा सकता है. उसमें भी अपराधी को सुधारने या उसके कल्याण की भावना रहनी चाहिए उसे नष्ट करने को नहीं द्वेषबुद्धि जितनी कम होगी व्यक्ति उतना ही अहिंसा की ओर अवसर कहा जायेगा. 3 भारतीय इतिहास में अनेक जैन राजा-मंत्री, सेनापति तथा बड़े-बड़े व्यापारी हो चुके हैं. समस्त प्रवृत्तियाँ करते हुए भी वे जैन बने रहे. अहिंसा और जीवन-निर्वाह कुछ समय से यह प्रश्न उठा है कि भारत की जनसंख्या बहुत बढ़ गई है परिणाम स्वरूप खाद्य सामग्री कम पड़ने लगी है अतः सरकार की ओर से मछलियाँ पालने तथा उन्हें खाने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. ऐसी स्थिति में एक जैन का क्या कर्त्तव्य है ? खाद्य सामग्री की कमी को दूर करने के अनेक उपाय हैं. भारत के क्षेत्रफल को देखते हुए कमी नहीं होनी चाहिए. उपज बढ़ाना तथा जन संख्या की वृद्धि को रोकना आदि अनेक उपाय काम में लाये जा सकते हैं. उस चर्चा में न जा कर हम खाद्य संकट को वास्तविक मान कर चलते हैं. 28 Jain ENGINNEN SZ15218121821912182 DINDINGS SZINONENEINANDINENEINEN.......... 1ry.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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