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________________ जयभगवान जैन : वेदोत्तरकाल में ब्रह्मविद्या की पुनर्जागृति : ४८५ -0-0--0-0-0--0--0--0--0-0 विद्याएँ, जिन्हें वे अमूल्य निधि जानकर परम्परा से पढ़ते और पढ़ाते चले आये थे, उनको अपरा अर्थात् साधारण, लौकिक विद्याएँ भासने लगी.' अब धन और सुवर्ण, गाय और घोड़े, पुत्र और पौत्र, खेत और जमीन, राज्य व अन्य लौकिक सम्पदायें, जिनकी प्राप्ति, रक्षा तथा वृद्धि के लिये वे निरन्तर इन्द्र और अग्नि से प्रार्थनायें किया करते थे, उनकी दृष्टि में सब हेय तुच्छ और सारहीन वस्तुएँ दिखाई देने लगी. अब उनके लिये आत्मविद्या ही परम विद्या बन गयी. आत्मा ही देखने जानने और मनन करने योग्य परम सत्य हो गया.२ अब उन्हें भासने लगा कि जो आत्मा से भिन्न सूर्य, इन्द्र, वायु अग्नि आदि देवों की उपासना करते हैं वे देवों के दास हैं, वे लदू पशुओं के समान देवों के भार को उठाने वाले वाहन हैं. परन्तु जो आत्मा की अद्भुत विश्वव्यापी शक्तियों को जानकर आत्मा के उपासक हैं वे सर्वभू (सर्वान्तर्यामी), परिभू (विश्वव्यापी) स्वयम्भू (स्वतन्त्र) बन जाते हैं, वे आत्मज्ञानी ही संसारपूजनीय हैं. यज्ञ याग आदि श्रौत कर्म संसारबन्धन का कारण है और ज्ञान मुक्ति का कारण. कर्म करने से जीव बार-बार जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है. परन्तु ज्ञान के प्रभाव से वह संसार-सागर से उभर अक्षय परमात्मपद को पा लेता है. नासमझ आदमी ही इन कर्मों की प्रशंसा करते हैं, इससे उन्हें बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है.५ जो ज्ञान को त्याग कर वेदोक्त यज्ञ यजन कर्म करने वाले हैं, अथवा ऐहिक आकांक्षाओं से प्रेरित दान आदि पुण्य कर्म करने वाले हैं, वे सब पितृयान मार्ग के पथिक हैं, वे धूम, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन पथ से पितृलोक, चन्द्रलोक, स्वर्ग को जाते हैं, पुण्य-अवधि क्षीण होने पर पुनः इसी मर्त्य-लोक में आकर जन्म धारण करते हैं. ज्ञानी जन द्वारा ये कर्म अपनाने योग्य नहीं हैं. ६ वात्यों के प्रति श्रादर—इस जिज्ञासा के फलस्वरूप उनका व्रात्यों और यतियों के प्रति आदर और सहिष्णूता का व्यवहार बढ़ने लगा. ब्राह्मण ऋषियों ने गृहस्थ लोगों के लिये यह नियम कर दिया कि जब कभी व्रात्य (व्रतधारी साधु) अथवा श्रमणजन घूमते-फिरते हुए आहार-पान के लिये उनके घर आवें तो उनके साथ अत्यन्त विनय का व्यवहार किया जावे, यहां तक कि यदि उनके आने के समय गृहपति अग्निहोत्र में व्यस्त हो तो गृहपति को अग्निहोत्र का उपक्रम छोड़ कर उनका आतिथ्य सत्कार करना अधिक फलदायक है." ब्रह्मविद्या की खोज-ज्ञान की इस अदम्य प्यास से व्याकुल हो अनेक प्रसिद्ध ऋषिकुलों के पूर्ण शिक्षा प्राप्त नवयुवक घर-बार छोड़ ब्रह्मविद्या की खोज में निकल गये. वे दूर-दूर की यात्रायें करते हुए, जंगलों की खाक छानते हुए, गान्धार से विदेह तक, पांचाल से यमदेश तक, विभिन्न देशों में विचरते हुए, ब्रह्मविद्या के पुराने जानकार क्षत्रिय घरानों में पहुंचने लगे. वे वहां शिष्य भाव से ठहर कर इन्द्रियसंयम, ब्रह्मचर्य, तप, त्याग और स्वाध्याय का जीवन बिताने लगे. इनकी इस अपूर्व जिज्ञासा, महान् उद्यम और रहस्यमय संवादों के आख्यान भारतीय बाङ्मय के जिन ग्रंथों में सुरक्षित हैं वे उपनिषत् संज्ञा से प्रसिद्ध हैं. यों तो ये उपनिषत् संख्या में २०८ से भी अधिक हैं परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से ११ मुख्य १. तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिष्मति. अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते. -मुण्डक उपनिषद् १ पृ० ५. २. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तब्यो निदिध्यासितव्यः । (याज्ञवल्क्य द्वारा दिया हुआ उपदेश) बहदारण्यक उपनिषद् २, ४, ५. ३. वृहदारण्यक उपनिषत्-१, ४. ६, १०. ४. तस्मादात्मज्ञं यचंयेद् भूतिकामः।-मुण्डक उप० ३-१-१०. ५. मुण्डक उपनिषत् १, २, ७११, २,१० महाभारत शान्ति पर्व अ० २४१, १.१०. ६. (क) यास्काचार्य प्रणीत निरुक्त, परिशिष्ट २,८, ६. (ख) छांदोग्य उपनिषद् निरुक्त ५, १०, ३-७. (रा) प्रश्न उप०१-६. (घ) भगवद्गीता १-६, २०, २१. ७. अथर्ववेद-काण्ड १५-सूक्त १ (११), १ (१२), १ (१३). anp anti Jain Educator JAWAHARMedia CLPIU MINGH M INISTI... HARIHAmtih.NIH . MHILA.. Miljal... ...tillITHun.AIRTILIA
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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