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________________ मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : १६ 染紫茶茶茶茶業深謀杀杀杀杀杀杀諾菜器 से परिपूरित मानव को मुक्ति का विमल संदेश दे सकता है. वह अपनी अध्यात्मविद्या के बल से उसके दिल की गाँठे खोल सकता है. इसलिए जनमानस उस ओर अतीत काल से आज तक झुका है, झुकता आया है. चाहिए उसके श्रद्धाशील मानस को झुकानेवाला. मनुष्य का मन-मस्तिष्क वहीं झुकता है जहाँ उसे अलौकिकता दीखती है. 'चमत्कार को नमस्कार' जैसी लोकमानस में तैरती-उभरती भावना इसीलिए चलती आ रही है. स्वामीजी श्रीहजारीमलजी महाराज में कुछ इसी प्रकार का चमत्कार विद्यमान था. यही कारण है कि वे जहाँ भी वर्षावास बिताया करते थे, वहाँ का वातावरण अत्यंत शान्त और प्रेमयुक्त रहता था. वहाँ एक विचित्र प्रकार की दिव्यता, भव्यता और पावनता-सी परिव्याप्त हो जाती थी. उनके वर्षावास काल में जनता का धर्मभाव मूर्तिमान् और स्फूर्त हो उठता था. वर्षाऋतु में प्रकृति बरस कर तप्त भूमि को शीतलता प्रदान करती है। स्वामीजी म० के भद्रभाव, निष्पक्ष व्यवहार, प्रशान्त मुखमुद्रा, और विमल मन को देखकर-द्वेष, क्लेश व द्वन्द्व से घुटती उफनती उमड़ती सुलगती लोगों की हृदय-भूमि स्वत: शान्त हो जाया करती थी. वर्षों से चली आ रही द्वेष की लम्बी परंपरा की लौहशृखला, उनके समभावों से कहे वचनों की चोट से टूट जाया करती थी. मुनिश्री ने जहाँ-जहाँ भी वर्षावास किया, वहाँ-वहाँ सर्वत्र अखण्ड शान्ति रही ! सभी सम्प्रदायों और वर्गों के लोगों का, उनके प्रवचनों के पीयूष से साम्प्रदायिकता का गरल विनष्ट हो जाया करता था. उन का उदार व्यवहार, धार्मिक उन्माद को पनपने ही नहीं देता था. भगवान् महावीर की धर्मसभा में जन्मजात प्राणी भी अपना वैर-भाव भूलकर निर्वैर हो जाते थे, इसी प्रकार स्वामीजी के सांनिध्य में भी लोग अपने वैमनस्य एवं वैर-विरोध को विस्मृत कर देते थे. उनका मन व हृदय, शान्त सरोवर के समान ही परिशान्त और विशाल था. उनके हृदय-सरोवर में प्रथम तो किसी व्यक्ति को कंकरी डालने का असत् विचार ही उत्पन्न नहीं होता था, अगर कोई कंकरी निक्षेप कर भी देता था, तो वहाँ चंचलता की ऊर्मियाँ उठती उभरती फैलती और आगे बढ़ती हुई दृष्टिगत नहीं होती थीं. जहाँ-जहाँ भी उन्होंने वर्षावास किया, वहाँ-वहाँ उन्हें सबने अपना कहकर ही पुकारा था. एक सन्त की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि उसे जनता साम्प्रदायिक भेद-भाव भुलाकर कितनी श्रद्धा अर्पित करती है ! कितना चाहती है !! उनके हृदय का प्रेम, बाल, युवा, वृद्ध, बाला, वृद्धा आदि सबके प्रति समान था. हृदय-द्वार सबके लिए अनावृत था. वहाँ जाति, सम्प्रदाय, प्रांत और प्रदेश के व्यक्ति को लेकर किसी भी प्रकार की भेद-भावमूलक समस्या उनके मन में नहीं थी. लगता है उनके रेशे-रेशे-में, पुष्प में सुगन्ध, दुग्ध में धवलता और अग्नि में ऊष्मा समाई रहती है-ऐसे ही समा गया था उनमें संतत्व ! समत्व !! और निर्ममत्व सबके प्रति !!! इस तरह वे सबको चाहते थे, सब उनको चाहते थे. वे सबके बन जाते थे और सब उनके अपने बन जाया करते थे. सन्त में सन्तानुकुल आचरण हो तो जनता का नमन भाव और श्रद्धा क्यों न प्राप्त हो. उच्चतम सात्विक जीवन-व्यवहार ही वह चमत्कार है जो जनमानस को स्वतः नतमस्तक कर देता है. इस प्रकार जीवन में सात्विकता आने पर जनसमाज हृदय की समस्त श्रद्धा अर्पित करने को प्रतिपल उत्सुक और प्रस्तुत रहता है ! जीवन यों बनते हैं: जीवन कैसे बने ? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है. अध्ययनकाल समाप्त होते-होते ही उनके मस्तिष्क में यह प्रश्न उभर आया था. पुरानी पीढ़ी का जीवन व्यक्तिशः प्रयत्न करने पर बनाया जा सकता है. परन्तु प्रश्न का यह बुनियादी और व्यापक हल नहीं है. नई पीढ़ीका जीवन बने यह अधिक स्पृहणीय है. यह उन्होंने मन में तय कर लिया था । वे व्यक्तिश: आत्मसाधना में जुटे रहे, क्षणिक उत्साह में आकर वे कोई कार्य नहीं करते थे. बहुतों के पीछे यह लेबिल चिपका रहता है: 'इन्होंने इतनी संस्थाओं को जन्म दिया है, इनके कार्यों का लेखा लम्बा है. आदि.' UNCCU Jain Louicial Tww.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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