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________________ १८: मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय NEHENNMMEMEWANANENEWWXXNX १. "यश और ख्याति की कामना संन्यास-साधना की राख है।" २. “कीर्ति-कामना साधना को कलुषित कर देती है." इन्हीं दो दीपाधारों से उनका अंतर-बाह्य आलोकित था. ख्याति या प्रसिद्धि की भावना आध्यात्मिक जीवन के दिवालियेपन का प्रमाण है. वह बहिरात्मवृत्ति की सूचक है. जिसके हृदय में कीर्ति-कामना जागृत रहती है, उसका जप-तप, ध्यान-मौन सभी कुछ अनात्मस्पर्शी, प्राणविहीन और निस्तेज होता है. अध्यात्म-जगत् में उसका कुछ भी मूल्य नहीं है. इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने कहा : नो इह लोगट्टयाए तवमहिटिज्जा, नो परलोगट्टयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्ति-वण्ण-सद्द-सिलोगट्टयाए तवमहिटिज्जा, ननस्थ निज्जरट्टयाए तवमहिटिज्जा ! दशवकालिक आगम का यह वाक्य स्वामीजी की जीवन-नीति का स्पष्ट मुद्रांकन था. अतएव नाम, प्रचार, परिचय, ख्याति से जीवन पर्यंत उन्होंने अपने आपको बचाए रखा. यह तथ्य उनके उत्कृष्ट सन्त होने का एक प्रबल प्रमाण है. साधुता का सत्य : स्वामीजी म. हृदय के सन्त थे. फक्कड़ साधुओं-से कठोर शब्दों का प्रयोग करके वाणी से साधुता उन्होंने कभी नहीं जताई. फक्कड़ साधुओं के समान पाषाण स्फोटक शब्द बोलकर अपने आपको निस्पृह प्रमाणित करने का भी उन्होंने कभी प्रयास नहीं किया और जड़ क्रिया-कांड के प्रदर्शन द्वारा उन्होंने अपनी साधुता को नीलामी के दाव पर भी कभी नहीं लगने दिया था. सम्प्रदायवाद की किलेबन्दी में रहनेवालों के सामने यह समस्या विकट ही रहती है कि अन्य सम्प्रदाय के साधुओं के साथ क्या, कितना और कैसे सम्बंध रखे ? स्वामीजी म० का फूल-सा कोमल मन, सब सम्प्रदायों के साधुओं के प्रति विनम्र था. यही कारण है कि जैनों के लगभग सभी सम्प्रदायों के साधु-जिन्होंने उनके किसलयवत् मन का मधुर प्यार पाया था- हृदय से उनके साधु स्वभाव के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे. जनेतर सम्प्रदायों के भी बहुत-से भिक्षु, जो उनके सम्पर्क में आये, उन्हें आज भी स्मरण करते हैं वे उनके सुमधुर और उत्प्रेरक संस्मरण सुनाते हैं, तो भावातिरेक से उनकी पलकें भीग जाती हैं. पूज्य स्वामीजी के सहजाचार से आकर्षित होकर जैनाजैन सम्प्रदायों के बहुत से साधु उनकी सेवा में रहने के लिये आए....उनके पास, तब भी उनका सन्त-मन चेलों की संख्या वृद्धि के मोह में नहीं ललचाया था. आगत भिक्षु को वे अपने पास रखते थे. नेह से समझाते-बुझाते. गुरु-भक्ति का महत्त्व बताकर पुन: उसके गुरु के पास भेज देते थे. मूर्तिपूजक श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदाय के अन्यान्य उपसंप्रदायों के साधु उनके पास गुरुओं से विचारभेद होने के कारण शिष्यत्व ग्रहण करने आये थे. इस प्रकार आनेवाले साधुओं की काफी बड़ी संख्या है. यह था उनका निस्पृहभाव ! साधुता का सत्यांकन !! चमत्कार हो तो श्रद्धा क्यों न हो ? व्यक्ति के पास श्रद्धा है किन्तु बहुधा विचित्र प्रकार की साधुता देख वह कुण्ठाग्रस्त हो जाता है. उसके पास विचार करने के लिए मस्तिष्क है. वह सोचा करता है-मैं अपनी श्रद्धा और आस्था को कहाँ केन्द्रित करूँ ? संसार के समस्त सम्बंध लेन और देन की आधारतुला पर तुलकर स्थापित होते हैं । संत ही एक ऐसा आधार है जिसे वह 'अपनी आराधना, साधना व भक्ति का मेरुदण्ड मान सकता है क्यों कि उसका आदर्श लेन और देन की तुला से अभिमुक्त है. सन्त ही मात्र पारलौकिक दिशा का निःस्वार्थ बोध प्रदान करता है. वह निःस्वार्थ होने के कारण कलह, काम और द्वेष Jain Educators __wywsLiaineltyrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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