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________________ -0-0-0-0--0-0-0--0-0 डा० कन्हैयालाल सहल : नियति का स्वरूप : ४१६ सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाभ्यहम् , दैवायत्तं कुले जन्म, मदायत्तं तु पौरुषम् । कर्ण की इस ओजमयी उक्ति में ही नियति और स्वातन्त्र्य का तत्त्व समाहित है. मंखलि गोशालक का नियतिवाद इस प्रसंग में मक्खलि गोशाल के नियतिवाद की चर्चा करना भी अवांछनीय न होगी. मक्खलि, आजीवकों के सुप्रसिद्ध सिद्धांत नियतिवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं. वे बहुत समय तक भगवान् महावीर के साथ रहे किन्तु फिर मतभेद के कारण उनसे पृथक् हो गये. 'भगवती सूत्र' तथा आवश्यक सूत्र' की चूणि में दोनों के पार्थक्य का विवरण उपलब्ध है. कहा जाता है कि एक दूसरे से पृथक् होने पर ये दोनों १६ वर्षों तक अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते रहे. इस अवधि में मक्खलि गोशाल की भी प्रतिष्ठा बढ़ गई और श्रावस्ती में उनके अनेक अनुयायी हो गये. उन्होंने अपने आपको तीर्थंकर भी घोषित कर दिया. विद्वानों के मतानुसार भगवान् महावीर से उनका मौलिक मतभेद नियतिवाद के सम्बन्ध में ही था. जहाँ गोशाल एकांत नियतिवादी थे, वहां श्रमण भगवान् महावीर अनेकान्तवाद के समर्थक थे. 'श्रीमदुपासकदशांगसूत्र' का निम्नलिखित प्रसंग यहाँ उल्लेख्य हैएक दिन सद्दालपुत्र ‘आजीविकोपासक' वायु से कुछ सूखे हुए मिट्टी के कच्चे बरतनों को घर से बाहर निकाल कर धूप में सुखा रहा था. उस समय भगवान् महावीर ने उससे पूछा : 'हे सद्दालपुत्र! ये मिट्टी के बरतन किस प्रकार बनते हैं ? सद्दालपुत्र ने उत्तर दिया : 'हे भगवन् ! प्रथम ये सब मिट्टी के रूप में थे, उस मिट्टी को पानी में भिगो कर उसमें राख और लीद मिलाते हैं, पीछे बहुत खूद करके उसको चाक पर चढ़ाते हैं जिससे बहुत से करवे. कुंजे आदि तैयार होते हैं. यह सुनकर श्रमण भगवान् ने फिर पूछा : 'सद्दालपुत्रा, एसणं कोलालभंडे कि उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कारपरक्कमेणं कज्जति उदाहु अणुट्ठाणोणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं कज्जति ?" अर्थात् हे सद्दालपुत्र ! जो ये मिट्टी के बरतन बने हैं, ये सब उत्थान, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से बने हैं या बिना उत्थान, बल वीर्य और पुरुषकार-परा- क्रम से बने हैं ? इस पर सद्दालपुत्र ने उत्तर दिया, 'भंते ! अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा' अर्थात् हे भगवन् ! विना उत्थान, बल, वीर्य और पराक्रम से बनते हैं. इनके बनाने में उत्थान, बल और पराक्रम की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सब भाव नियत हैं. इस पर श्रमण भगवान् ने फिर पूछा, “सद्दालपुत्ता ! जइ णं तुभं केइ पुरिसे वायायं वा पक्केलयं वा कोलालभंडं अवहरेज्जा वा विक्खि रेज्जा वा भिदेज्जा वा अच्छिंदेज्जा वा परिट्ठवेज्जा वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं दंडं वत्तेजासि ?" अर्थात हे सद्दालपुत्र ! यदि कोई पुरुष कच्चे में से पके हुए तेरे बरतनों की चोरी कर ले जाय, बिखेर दे, फेंक दे, छेद करदे, फोड़ डाले या बाहर लेजाकर छोड़ दे अथवा तेरी अग्निमित्रा भार्या के साथ अनेक प्रकार से भोग, भोगे तो तू उस पुरुष को दंड दे अथवा नहीं ? यह सुनकर सद्दालपुत्र ने उत्तर दिया, "भंते ! अहं णं तं पुरिसं आओसेज्जा वा हरोज्जा वा बंधेज्जा वा महेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेज्जा वा निब्भच्छेज्जा वा अकाले चेव जीविआओ ववरोवेज्जा." अर्थात् हे भगवन् ! मैं उस पुरुष पर आक्रोश करूं, दंडादिक से मारूं, रस्सी से बांध लं, तर्जना करूं, तमाचा लगाऊं दाम वसूल करके तिरस्कार करूं और उसके प्राण ले लूं. यह सुन कर भगवान् महावीर ने कहा, "हे सद्दालपुत्र ! तुम्हारे मतानुसार तो उत्थान, बल, वीर्य और पराक्रम कुछ नहीं है, सब भाव नियत ही हैं तो तेरे पके हुए मिट्टी के बरतनों को चोरने वाले या फोड़ने वाले तथा तुम्हारी भार्या S a rji EKHElis III AWARIYAWADIMANA NASVED IOMAASITI) Ling wikini T IMITTHI. MRTMant||LATINDIANS IIIT NAMITHAIJAATWITTIS110...HINITIATIMIMAmredIT111... For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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