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________________ ४१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय "The poor slaves...must drag the car if Destiny wherever she drives, inexorable and blind जो हमारे भाग्य की गाड़ी चलती है, वह यदि अन्धी हो तो फिर इस जीवन का क्या ठिकाना है. उक्त विवेचन को पढ़ कर ऐसा लगता है कि यदि इस विश्व में सब कुछ पूर्वनिर्दिष्ट है तो क्या मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति के लिये यहाँ कोई स्थान नहीं है ? दर्शन शास्त्र का यह एक बड़ा जटिल प्रश्न है जिस पर गम्भीरता से विचार करना आवश्यक है. डा० राधाकृष्णन् ने शायद कहीं कहा था कि 'स्वतन्त्रः कर्त्ता' केवल पाणिनि का ही सूत्र नहीं, वह हमारे देश का दार्श निक सूत्र भी है. प्राकृतिक जगत् की वस्तुओं की भांति मनुष्य वस्तु नहीं, वह वस्तुओं को अपनी इच्छानुसार रूप देने वाला कर्ता है. जब वैज्ञानिक किसी वस्तु का आविष्कार करता है, तब वह उस वस्तु से अपने को अलग कर लेता है और तब उसके रहस्योद्घाटन का प्रयत्न करता है. इससे स्पष्ट है कि जहाँ तक व्यक्ति का सम्बन्ध है, उसमें अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति का तत्त्व सन्निहित है. वह तत्त्व वस्तु बाह्य अथवा आन्तरिक है. इस तत्त्व की जब हम उपेक्षा करने लगते हैं तब हम अपने आप को मात्र वस्तु मान लेते हैं. जड़ पदार्थों की भांति हम अपने आपको यंत्र का एक पुर्जा समझने लगते हैं और उस स्वतन्त्रता से अपने आपको वंचित कर लेते हैं— जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. मनुष्य नियति के अधीन है अथवा कर्म करने में स्वतन्त्र है, इस प्रश्न का वेदान्त ने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया है. वेदान्त के अनुसार जब तक मनुष्य अविद्या के वशीभूत रहता है, तब तक वह स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता. मोक्ष अथवा स्वातन्त्र्य, विद्या द्वारा ही सम्भव है. जो मनुष्य इच्छा तृष्णा अथवा वासनाओं का शिकार है, वह स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता. स्वतन्त्र बनने के लिए सतत साधना द्वारा उसे आत्म-साक्षात्कार करना होगा. साथ ही यह भी सत्य है कि मनुष्य की मनुष्यता इस स्वातन्त्र्य सिद्धि में ही है क्योंकि वही एक ऐसा प्राणी है जो साधना द्वारा आत्म-संस्कार कर सकता है. पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों तथा जीव-जन्तुओं में यह सक्ति नहीं कि वे मनुष्य की भांति अपना संस्कार कर सकें, वे अपनी सहज वृत्ति से ऊपर नहीं उठ सकते. दैववाद तथा स्वातन्त्र्यवाद के सम्बन्ध में जो विचार ऊपर प्रकट किए गये हैं, वे हमारे देश की दार्शनिक विचारधारा के अनुरूप हैं किन्तु व्यावहारिकता की दृष्टि से हमारे जीवन में देव तथा पौरुष दोनों का स्थान है. माघ कवि के शब्दों में "नालम्यते वैष्टिकतां ना निषीदति पौरुषे शब्दार्थी सत्कविरिवविज्ञान - शिशुपालवध, द्वितीय सर्ग, श्लोक ८६. अर्थात् विद्वान् न तो केवल देव का सहारा लेता है और न पौरुष पर ही स्थित रहता है. जिस प्रकार सत्कवि शब्द और अर्थ दोनों का आश्रय ग्रहण करता है, उसी प्रकार विद्वान् भी देव और पौरुष दोनों को जीवन में आवश्यक समझता है. गीताकार ने भी कार्य सिद्धि में अधिकरण, कर्ता, भिन्न-भिन्न प्रकार के कारण तथा विविध चेष्टाओं से साथ 'दैवं चैवात्र पंचमम्' कह कर देव की भी सत्ता स्वीकार की है. Jain Education International 2 एक बार हमारे प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने नियतिवाद और स्वतन्त्र इच्छाशक्ति का तारतम्य बतलाते हुए लिखा था - 'इस विश्व में नियतिवाद और स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति दोनों के लिये स्थान है. इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है. ब्रिज के खेल में प्रत्येक खिलाड़ी को जो ताश के पत्ते मिलते हैं, उसमें खिलाड़ी की स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति का कोई हाथ नहीं रहता किन्तु उन्हीं पत्तों की सहायता से अपने अनुभव और बुद्धि-कौशल द्वारा चतुर खिलाड़ी जो खेल, खेलता है उसमें उसकी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति का पूरा योग है.' एक दूसरा उदाहरण लीजिए. पिता के चुनाव में पुत्र स्वतन्त्र नहीं है किन्तु पुत्र रूप में अवतरित व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र इच्छा शक्ति द्वारा अपने व्यक्तिव का समुचित विकास कर सकता है. कर्ण के सारथि पुत्र होने की बात कह कर जब अश्वत्थामा ने उसके मर्मस्थल पर चोट करनी चाही तो कर्ण ने कहा था Jo,olololololo Veidiololol Prate ons Use Only alolololololol wwwww.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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