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________________ ३८६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय वर्गीकरण-प्रकाश-पथ में दर्पणों [Mirrors] और अणुवीक्षों [Lenses] का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण ही है. इस प्रकार के आवरण से वास्तविक और अवास्तविक प्रतिविम्ब बनते हैं. ऐसे प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वर्णादिविकारपरिणत और प्रतिबिम्बमात्रात्मक.' वर्णादिविकारपरिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिये जा सकते हैं जो विपर्यस्त [inverted] हो जाते हैं और जिनका प्रमाण [size] बदल जाता है. ये प्रतिबिम्ब प्रकाश-रश्मियों के वस्तुतः [Actually] मिलन से बनते हैं और प्रकाश की ही पर्याय होने से स्पष्टत: पौद्गलिक हैं. प्रतिविम्बमात्रात्मिका छाया के अंतर्गत विज्ञाने के अवास्तविक प्रतिबिम्ब [virtual images] रखे जा सकते हैं जिनमें केवल प्रतिबिम्ब ही रहता है, प्रकाश-रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिम्ब नहीं बनते. प्रकाश-जैन सूत्रकारों ने प्रकाश के आतप और उद्योत के रूप में दो विभाग किए हैं और उन्हीं के रूप में उसका विवेचन किया है. उनका यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक बन पड़ा है. जैन सूत्रकारों की यह सुक्ष्मदृष्टि और भेदशक्ति [Discriminative Power] निस्संदेह आश्चर्यजनक है. प्रकाश का वैज्ञानिक विवेचन भी सम्भव है. वह चाहे सूर्य का हो, चाहे दीपक का, निरन्तर गतिशील है. वैज्ञानिकों ने लोक [ब्रह्माण्ड] में घूमने वाले आकाशीय पिण्डों की गति, दूरी आदि को मापने के लिये प्रकाश-किरण को ही अपना माप-दण्ड मान रखा है क्योंकि उसकी गति सदा समान है. प्रकाश में पहले भार नहीं माना गया था लेकिन अब यह सिद्ध हो चुका है कि वह एक शक्ति का भेद होते हुए भी भारवान् है. वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया कि प्रकाश विद्युत-चुम्बकीय तत्त्व है. वह एक वर्गमील क्षेत्र पर प्रतिमिनिट आधी छटांक मात्रा में सूर्य से गिरता है. आतप (धूप)-सूर्य आदि के निमित्त से होने वाले उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं.२ इसमें ऊर्जा का अधिकांश तापकिरणों [Heat Rays] के रूप में प्रकट होता है. उद्योत (चांदनी)-चन्द्रमा, जुगनू आदि के शीत प्रकाश को उद्योत कहते हैं. उद्योत में अधिकांश ऊर्जा प्रकाश-किरणों [Light-energy] के रूप में प्रकट होती है. ताप-ताप को हम उष्णता कह कर समझ सकते हैं. इसे पुद्गल के उष्ण स्पर्श गुण की पर्याय कहा जाना चाहिए. तभी ताप का विवेचन पूर्णतः वैज्ञानिक दृष्टि से होगा. परमाणु में घनाणु और ऋणारगु निरन्तर गतिशील रहते हैं और इसी तरह अणु में स्वयं परमाणु और अणु-गुच्छकों में अणू निरन्तर गतिशील रहते हैं. यही आन्तरिक गति जब बहुत बढ़ जाती है और सूक्ष्मकण परस्पर टकराते हुए इधर-उधर दौड़ने लगते हैं तो वे ताप के रूप में दिखने लगते हैं. विद्य त (बिजली)—विद्युत् को हम साधारणतः घन-विद्युत् और जल-विद्युत् के दो रूपों में देखते हैं. ये दोनों ही पुद्गल-पर्याय हैं और दोनों का वैज्ञानिक मूलाधार एक ही है. वैज्ञानिक दृष्टि से विद्युत् के दो रूप हैं, घन और ऋण. घन का आधार उद्यत्कण [Proton] और ऋण का आधार विद्युत्कण [Electron] है. सिद्धान्त के अनुसार विश्व का प्रत्येक पदार्थ विद्युन्मय है. रेडियो--क्रियातरख [Radio-activity]-जब किसी परमाणु [Atom] से किसी कारणवश उसके मूलभूत कण, विद्युत्कण [Electron] और उद्युत्कण [proton] पृथक् होते हैं तो बम फटने की तरह धड़ाके की आवाज होती है, साथ ही उससे एक प्रकार की लौ निकलती है जो प्रकाश की तरह आगे-आगे बढ़ती चली जाती है. इसी लौ के प्रसरण को रेडियो-क्रियातत्त्व [Radio activity] या किरण-प्रसरण [Radiation] कहते हैं. आधुनिक विज्ञान के १०३ तरव-वैज्ञानिकों ने पुद्गल के कुछ ऐसे पर्यायों का पता लगाया है जो अपनी एक स्वतन्त्र १. सा देधा वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका चेति ।-वही, अ० ५, सू० २४. २. आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः । वही, अ०५, सू० २४. ALA wwwww W 01010101oloto /otdtoloroton ololololololol Jain Educator memorary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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