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________________ मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन वृत्त : १३ "अादरणीय बाल मुनि, 'धन्य तो आप हैं. आपने कठिन व्रत अंगीकार किया है. क्लेशरूपी गृहजीवन छोड़कर, स्नेह-बन्धन की बेड़ियों को तोड़कर, मुक्त होने जा रहे हैं. सुख-दुख में समता और मोह-विमुक्त जो धर्मका स्वरूप है, उसे आपने धारण किया है. आपकी भावना के अनुरूप ही हमारी आकांक्षा आपके साथ है." "पूज्य गुरुदेव व बालमुनि, 'संसार-सुख से विरक्त होने वाली आत्मा ही इस संसार में महान् है. दीक्षित होने वाला मित्र हो, पुत्र हो, पति हो, पत्नी हो, परिचित हो या अपरिचित हो--उसे संसार की ओर अभिमुख करना वस्तुतः उसका अहित ही सोचना कहलाता है. हम सब की शुभकामना और भावना लघुमुनि के साथ है. आपकी संयम-यात्रा निर्वाध हो यही हमारी विनयपूर्वक कामना है." मुनि-मंच से लघुमुनि का भाषण : 能帶跳跳游游游游游游旅游带带带带带带带 मुनिश्री, साधु-समूह के मध्य में काष्ठ पट्ट पर आसीन हुए. आशीर्वादात्मक भाषणों के अनंतर मुनिश्री ने कहा : "आप सब लोगों की शुभकामना मेरा पथ आलोकित करे. यह दृढ़ विश्वास लाता हूँ और प्रतिज्ञा करता हूँ-"जीवन की अन्तिम घड़ियों तक मैं आत्म-साक्षीपूर्वक गृहीत वीतराग पथ पर प्रामाणिकतापूर्वक चलता रहूँगा. एकदिन जीवन की सांझ आ जाएगी पर साधना का अवसान नहीं आने दूंगा." दीक्षा समारोह का सानन्द उल्लासमय वातावरण में समापन हुआ. गुरु, साधु-जीवनके परम काम्य की साधना में निरत थे. शिष्य को उस रस की अनुभूति कराई. साथ लिया और ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे. शिष्य की ज्ञान-त्वरा : जैनागमों में सुयोग्य शिष्य का लक्षण बताते हुए कहा है—गुरु का प्रिय शिष्य वह है जो विनयी, आराधक, जिज्ञासु और गुरु के संकेत-सूत्रों का चिन्तन कर अपने जीवन को उनकी व्याख्यामय बना लेता है. मुनिश्री ने विनय को जीवन का मूल मंत्र, गुरु-आज्ञा को धर्म की आधारशिला, जिज्ञासा को संयम की बाती और गुरु के संकेत सूत्रों में अपना सारा चिन्तन केन्द्रित किया. उन्होंने ज्यों-ज्यों गुरु की सेवा की त्यों-त्यों उनमें ज्ञान की ज्योति का प्रकाश विस्तार पाने लगा. अध्ययन-क्रम: गुरुदेव के निर्देशन व पथ-प्रदर्शन में मुनिश्री ने जैनागमों का अध्ययन प्रारंभ किया. प्राचीन शिक्षा पद्धति के अनुसार उस युग में थोकड़े सीखना मुनि के लिये अति आवश्यक माना जाता था. थोकड़े एक प्रकार से गणित के गुरु के सदृश होते हैं. गुरों का ज्ञान हो जाने पर जो गणितांकन, आज के गणितपाठी घंटों पेंलिस कागज लेकर भी नहीं कर पाते, वह कुछ ही पलों में कर लिया जाता है. लक्षण-ग्रंथों को जिह्वाग्र करने वाले भी जिस ज्ञान की अतलता प्राप्त करने में चक्कर खाने लगते हैं, उस अतल गहराई में थोकड़ों की ज्ञान-प्राप्त पद्धति सरलता से पहुँचा देती है. तो उन्होंने बहुसंख्यक थोकड़े सीखे. प्राकृतभाषा के जैनशास्त्र कंठाग्र किए. शुकपाठवत् रटे ही नहीं अपितु उन पर गंभीर चिन्तन के साथ मंथन भी किया। गुरु से शंकाओं, समस्याओं और प्रश्नों का समाधान मांगा। गुरु ने भी उनके प्राणवान प्रश्नों का खुशी-खुशी तर्क संगत समाधान दिया. गुरु को योग्य शिष्य मिला. शिष्य को ज्ञानी गुरु मिले. शिष्य के तार्किक प्रश्न समाधिस्थ हुए. गुरु को मोद मिला. इस तरह वे निरंतर ज्ञान-प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ते रहे. सिद्धान्त चन्द्रिका व्याकरण का विधिवत् अध्ययन कर शब्दों के उद्गम का पता लगाया. एक दिन उन्होंने गुरुदेव से निवेदन - लापूर HEA Jain Educa Jamendrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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