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________________ 器器来涨涨涨涨涨涨涨涨涨茶器茶茶茶茶资 १२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय बृहत् सागर से पार उतर जाऊँगा । आपके चरण ग्रहण कर लेने पर मुझे जन्म-मरण रूप संसार की लम्बाई को देखकर भी भय नहीं रहा. अन्त तक मुनिधर्म का पालन करूँगा. अतः जन्म-मरण से मुक्ति दिलाने वाले वीतराग जीवन की दीक्षा प्रदान करने का अनुग्रह करें." गुरु ने सज्ञान विनयी, शिष्य की विनती सुनी. शिष्यत्व प्रदान करने की स्वीकृति दी. मुनिश्री ने जनता का सम्बोधित करते हुए कहा : "उपस्थित आत्मीयजनों ! 'मैं अब तक गुरुदेव की सेवा में रहते-सहते ज्ञानार्जन करता रहा. इस अवधि में नाना प्रकार के प्रलोभन देकर बाधा की बाढ़ खड़ी करने वाले मुझे मिले. परन्तु मेरी आस्था में उससे किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया. गुरु-चरणों में मेरा अचल अनुराग रहा. फलस्वरूप बाट की बाधा मेरी निज की बाट में बाधक न बन सकी. और कुछ ऐसे भी मुझे मिले जिन्होंने कहा : 'हजारी, तुम इतनी छोटी उम्र में यह क्या साहस करने जा रहे हो ? ऐसी कोमल अवस्था में तुम से कठोर साधु-धर्म का पालन नहीं हो सकेगा. अपनी चंचलता के कारण कोई गलती कर बैठो इस से अच्छा है फिर से विचार कर लो. समय आने पर फिर कभी साधु जीवन में प्रवेश करना. पहले जीवन के उपलब्ध सुख-साधनों का उपयोग कर लो, संसार का सुख देख लो.' । 'मैंने उन्हें, गुरु से जो ज्ञान सीखा है उसके बल पर उत्तर दिया : “भोग-उपभोग क्षणिक हैं. वे पहले मधुर और बाद में कटु साबित होते हैं. निर्वाण जैसा परम सुख वीतराग के मार्ग में ही है. इसलिए जैसे भी हो मनुष्य को निर्वाण के मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर इस ओर मुड़ जाना चाहिए. क्योंकि जीवन का असली उद्देश्य वीतरागता ही है. मृत्यु सिर पर आए उससे पहले ही कल्याण का मार्ग अपना लेना चाहिए. 'मुझे माता-पिता और भाई-बहिन व अन्य सम्बन्धी जन निर्वाण मार्ग में शृखला की बेड़ियों की तरह लगते हैं. इन सब का साथ मुझे ऐसा लगता है जैसे प्रवास में साथ चलते व्यक्ति के साथ ये चलते तो अवश्य हैं, पथ के कष्ट भी साथसाथ उठा लेते हैं परन्तु वन में किसी प्रकार के भय का कारण उपस्थित हो जाता है तो सब अपनी-अपनी जान बचाकर भाग छूटते हैं-ऐसे ये भाग जाते हैं. इसी प्रकार ये सगे संसार-यात्रा में, स्नेहवश सुख-दुख भोगने, एक दूसरे की सहायता करने आ जाते हैं किन्तु मृत्यु आने पर अलग हो जाते हैं. इसलिए मेरी यह धारणा बन चुकी है कि संसार अनित्य है. संसार का सुख वस्तुजन्य है. वस्तु स्वयं अनित्य है. इस कारण वस्तुजन्य सुख भी अनित्य है. जो स्वयं अनित्य है वह मनुष्य की अनन्तकालीन भूखी आत्मा को भोजन देने में भी असमर्थ ही है. अत: मैंने गुरु की शरण ग्रहण करना योग्य माना है. "इसी तरह मैंने उनको समाधान किया और मेरा अभिलषित दिवस आज आ गया. माता सहित आप सबसे अन्तिम बार इस चोले के द्वारा, मेरे से असुविधा पहुँची हो तो, मैं उसके लिये क्षमायाचना करता हूँ. आज गुरुदेव मुझे वीतराग-पथपर चलने का गुरुमंत्र प्रदान करेंगे." गुरुप्रवर ने संघ-साक्षी से श्रीहजारीमलजी को विधिवत् भागवती दीक्षा प्रदान की. और इस प्रकार हजारीमलजी, मुनि हजारीमलजी हो गए. उपस्थित श्रद्धालुओं में से कतिपय प्रमुखों ने नवदीक्षित मुनि को विनीत आशीर्वचन कहे, जिनका भाव इस प्रकार है : "नवदीक्षित मुनि प्रवर, 'आपने यह मुनिपद अंगीकार कर लिया है तो हमारी आपके लिये अन्तःकरण से कामना है कि आत्मसंयम और तप के बलसे इस भवभ्रमण रूप संसारसे पार उतरिये. इस क्षण-भंगुर संसार-समुद्र में से जन्म-मरणकी लहरों से, एक कुंख से दूसरी कंख में जाने के कष्ट से, वियोग-विपद् से—अवश्य मुक्त हों." onahelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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