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________________ सुरेश मुनि अनेकान्त : ३५३ वस्तु के इस त्रयात्मक रूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए एक दूसरा उदाहरण भी जैन-दर्शनकारों ने उपस्थित किया है. किसी व्यक्ति ने दूध को ही ग्रहण करने का नियम ले लिया है, वह दही नहीं खाता और जिसने दही ग्रहण करने का ही व्रत लिया है वह दूध ग्रहण नहीं करता, परन्तु जिसने गोरस मात्र का त्याग कर दिया है, वह न दूध लेता है और न दही ही खाता है. इस नियम के अनुसार दूध का विनाश, दही की उत्पत्ति और गोरस की स्थिरता, ये तीनों तत्त्व अच्छी तरह प्रमाणित हो जाते हैं. दही के रूप में उत्पाद, दूध के रूप का विनाश और गोरस के रूप में ध्रौव्य, तीनों तत्त्व एक ही वस्तु में स्पष्टतः अनुभव में आते हैं- पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः, अगोरतो मोमे, सरमाणावं प्रयात्मकम् । वही पूर्वोक्त पदार्थ के उत्पत्ति, विनाश और स्थिति, इन तीनों धर्मों से यह स्पष्ट हो जाता है कि, वस्तु का एक अंश बदलता रहता है— उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है तथा दूसरा अंश अपने रूप में बना रहता है. वस्तु का जो अंश उत्पन्न एवं नष्ट होता रहता है, उसे जैन दर्शन की भाषा में 'पर्याय' कहा जाता है और जो अंश स्थिर रहता है वह 'द्रव्य' कहलाता है. कंगन से मुकुट बनाने वाले उदाहरण में, कंगन तथा मुकुट तो 'पर्याय' हैं और सोना 'द्रव्य' है. द्रव्य की दृष्टि से विश्व का प्रत्येक पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है. मिट्टी का घड़ा नित्य भी है और अनित्य भी है. घड़े का जो आकार है, वह विनाशी है, अनित्य है, परन्तु घड़े की मिट्टी अविनाशी है, नित्य है. क्योंकि, आकार रूप में, घड़े का नाश होने पर भी मिट्टी-रूप तो विद्यमान रहता ही है. मिट्टी के पर्याय आकार परिवर्तित होते रहते हैं किन्तु मिट्टी के परमाणु सर्वथा नष्ट नहीं होते. यही बात वस्तु के 'सत्' और असत्' धर्म के सम्बन्ध में भी है. कुछ विचारकों का मत है कि वस्तु सर्वथा 'सत्’ है और कुछ का कहना है कि वस्तु सर्वथा 'असत्' है. किन्तु जैन दर्शन के महान् आचार्यों का मन्तव्य है कि प्रत्येक पदार्थ सत् भी है और असत् भी दूसरे शब्दों में, वस्तु है भी और नहीं भी अपने स्वरूप की दृष्टि से वस्तु 'सत्' है और पर स्वरूप की दृष्टि से 'असत्' है. घट अपने स्वरूप की अपेक्षा से 'सत्' है, विद्यमान है, परन्तु पट के स्वरूप की अपेक्षा से घट असत् है, अविद्यमान है. ब्राह्मण 'ब्राह्मणत्व' की दृष्टि से 'सत्' है, लेकिन क्षत्रियत्व की दृष्टि से 'असत्' है. प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अपनी सीमा के अन्दर है, सीमा से बाहर नहीं. यदि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक वस्तु के रूप में सत् ही हो जाए, तो फिर विश्व-पट पर कोई व्यवस्था ही न रहे. एक ही वस्तु सर्व रूप हो जाए. अनेकान्तवाद 'संशयवाद नहीं है. अनेकान्तवाद के सम्बन्ध में अर्जन जगत् में कितनी ही जातियां फैली हुई है. किसी का विचार है कि अनेकान्तवाद संशयवाद है. परन्तु जैन दर्शन के दृष्टिबिन्दु से यह सत्य से हजार कोस परे की बात है. संशय तो उसे कहते हैं जो किसी भी बात का निर्णय न कर सके. अंधेरे में कोई वस्तु पड़ी है. उसे देखकर अन्तर्मन में यह विचार आना कि "कि यह रस्सी है या सांप ?" इस अनिर्णीत स्थिति का नाम है संशय. इसमें 'रस्सी' अथवा 'सांप' किसी का भी निश्चय नहीं हो पाता. कोई वस्तु किसी निश्चयात्मक रूप से न समझी जाए, यही तो जैसी कोई स्थिति है ही नहीं. वह तो संशय का मूलोच्छेद कही जाती है, उस अपेक्षा से वह बात वैसी ही है, यह सौ अपनी बात जोर देकर 'ही' पूर्वक कहता है. उदाहरण के और पर्याय की दृष्टि से 'अनित्य' ही मानता 'संशय' का स्वरूप है. परन्तु अनेकान्तवाद में तो 'संशय' करने वाला निश्चितवाद है. यहां जिस अपेक्षा से जो बात फीसदी निश्चित है. 'अनेकान्तवाद' अपेक्षा की दृष्टि से तौर पर, अनेकान्तवादी द्रव्य की दृष्टि से आत्मा को नित्य ही मानता है है. द्रव्य की दृष्टि से आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है अथवा पर्याय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य भी है और नित्य भी है - ऐसे अनिश्चयात्मक घपले की बात अनेकान्तवादी कभी नहीं कहता मानता. 'ही' - पूर्वक अपनी बात को कहता हुआ भी, वह 'स्यात्' पद का प्रयोग इसलिए करता है कि आत्मा द्रव्य की दृष्टि से जैसे नित्यत्व धर्म वाला पहलू कहीं आँखों से लुप्त न हो जाए. एकान्तवाद आकर अपना आसन जमा है, उसी प्रकार पर्याय की दृष्टि से अनित्यत्व-धर्म वाला भी है. सत्य का यह यदि यह सत्य-दृष्टि विचारक के मानस-नेत्र से ओझल हो जाए तो फिर वहां wwwww.jairefbrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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