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________________ .३१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ------------------ दुःख पाकर भी मां हंस पड़ी और अपने भोले बेटे को छाती से लगा लिया. बाजार तो दोनों ओर था परन्तु कानेपन के कारण वह मां का भोला बेटा एक ओर ही देख सका ! ऐसे ही वे विचारक भी काने ही हैं जो एकान्त के झमेले में पड़ कर, अपनी एक दृष्टि-आंख से वस्तु-स्वरूप के सत्य को देखने का यत्न करते हैं. वे वस्तु-स्वरूप के एक-एक पहलू को ही देख पाते हैं, पर वह सत्य होता है दूसरी ओर भी. अपने कानेपन के कारण दूसरी ओर का सत्य उन्हें दीख नहीं पड़ता ! एकान्त का पक्षान्ध भला प्रकाश का दर्शन कैसे कर सकता है ? अनेकान्तवाद मनुष्य की दृष्टि के इस कानेपन को मिटाकर, वस्तु-स्वरूप को 'विविध दृष्टियों' से देखने की प्रेरणा प्रदान करता है. अपने घर के आंगन में खड़ा व्यक्ति अपने ऊपर ही प्रकाश देखता है. छत पर चढ़कर देखे तो सब जगह प्रकाश ही प्रकाश. अनेकान्त खिड़की या आंगन का धर्म नहीं, छत का धर्म है. पदार्थ के विराट स्वरूप की झांकी-जैन-दर्शन की विचारधारा के अनुसार, जगत् के सब पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति- इन धर्मों से युक्त हैं ! जैनत्व की भाषा में इन्हें उत्पाद, व्यय और धौव्य कहते हैं. वस्तु में जहाँ उत्पत्ति तथा विनाश की अनुभूति होती है, वहां उसकी स्थिरता का भान भी स्पष्टतः होता है. सुनार के पास सोने का कंगन है. उसने उस कंगन को तोड़कर मुकुट बना लिया. इससे कंगन का विनाश हुआ और मुकुट की उत्पत्ति हुई. परन्तु, उत्पत्तिविनाश की इस लीला में मूल-तत्त्व सोने का अस्तित्व तो बराबर बना रहा. वह ज्यों-का-त्यों अपनी स्थिति में विद्यमान रहा. इससे यह तथ्य निखर कर ऊपर आया कि उत्पत्ति और विनाश केवल आकार-विशेष का होता है, न कि मूल-वस्तु का. मूल वस्तु तो हजार-हजार परिवर्तन होने पर भी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होती ! कंगन और मुकुट सोने का आकार-विशेष है. इस आकार-विशेष के ही उत्पत्ति एवं विनाश देखे जाते हैं. पुराने आकार का नाश हो जाता है और नए आकार की उत्पत्ति हो जाती है. अतः उत्पत्ति, विनाश और स्थिति तीनों ही पदार्थ के स्वभाव सिद्ध हुए. सोने में कंगन के आकार का विनाश, मुकूट की उत्पत्ति और सोने की स्थिति, ये तीनों धर्मतया मौजूद है. संसार का कोई भी पदार्थ मूलतः नष्ट नहीं होता. वह केवल अपना रूप बदलता रहता है. इस रूपान्तर का नाम ही उत्पत्ति और विनाश है और पदार्थ के मूल-स्वरूप का नाम स्थिति है. उत्पत्ति, विनाश और स्थिति-ये तीनों गुण प्रत्येक पदार्थ के स्वाभाविक धर्म हैं, इस तथ्य को हृदयंगम कराने के लिए, जैन-दर्शन के ज्योतिर्धर विचारकों ने एक बहुत सुन्दर रूपक हमारे सामने प्रस्तुत किया है ! तीन व्यक्ति मिलकर किसी सुनार की दूकान पर गए ! उनमें से एक को सोने के घड़े की जरूरत थी, दूसरे को मुकुट की और तीसरे को मात्र सोने की ! वहां जाकर वे क्या देखते हैं कि सुनार सोने के घड़े को तोड़कर उसका मुकुट बना रहा है. सुनार की इस प्रवृत्ति को देखकर उन तीनों व्यक्तियों में अलग-अलग भाव-धाराएँ उत्पन्न हुईं ! जिस व्यक्ति को सोने का घड़ा चाहिए था, वह घड़े को टूटता हुआ देखकर शोक-सन्तप्त हो गया ! जिसे मुकुट की आवश्यकता थी, वह हर्ष से नाच उठा ! और जिस व्यक्ति को केवल सोने की जरूरत थी, उसे न शोक हुआ और न हर्ष ही ! वह तटस्थ-भाव से देखता रहा. उन तीनों व्यक्तियों में यह भिन्न-भिन्न भावों की तरंगें क्यों उठी ? यदि वस्तु उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिति से युक्त न होती तो उनके मानस में इस प्रकार की भाव-धाराएँ कभी न उमड़ती ! घड़ा चाहने वाले व्यक्ति के मन में घड़े के टूटने से शोक हुआ, मुकुट की इच्छा रखने वाले को प्रमोद हुआ और मात्र सोना चाहने वाले को शोक या प्रमोद कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि सोना तो घड़े के विनाश और मुकुट की उत्पत्ति दोनों ही अवस्थाओं में विद्यमान है. अतः वह मध्यस्थ-भाव से खड़ा रहा. अलग-अलग भावनाओं के वेग का कारण वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और स्थिति तीनों धर्मों का होना है घट-मौलि-सुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम्, शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् । -समन्तभद्र, आप्तमीमांसा Jain Education Private&Personali ainerary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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