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________________ मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : ७ तात्त्विक दृष्टि से चिन्तन करने पर प्रतिफलित होता है कि यथार्थतः मुक्ति का आधार वियोग है. संयोग नहीं. श्रमणपरंपरा बहुत प्राचीनकाल से वियोग के प्रति ही निष्ठावान रही है. आत्मा और कर्म का वियोग अपरिहार्य तथ्य है. वही शाश्वत सुख का आधार है, संयोग बंध का कारण है. जीवन में आगत विषमताओं का संतुलन चारित्रिक शक्ति द्वारा ही संभव है. स्पष्ट कहा जाय तो संयम ही कर्म और आत्माके वियोग का आधार है . "माँ, मैं भी तुझे सुखी देखना चाहता हूँ. तू मेरे सुख में सुख देखती है, यही मातृ-हृदय का माहात्म्य है. मैं दीक्षा लेकर सुख का अनुभव करूंगा तो निश्चय ही इससे तुझे भी सुख मिलेगा. मैं गुरुदेव के सुख में सुख खोजूंगा और गुरु को सुख निर्मल साधना से मिलता है यह भी सत्य है न ?" "हां बेटा, गुरुको सुख तो निर्मल साधना से ही मिलता है." माँ ने बेटे की ममता को गुरुभक्ति में समोकर कहा. "तो मां, मुझे भी स्वसुख, तेरे सुख और गुरु-सुख हित-साधना करनी है. आज तू मुझे त्रिविध सुख के लिये अन्तःकरण से आशीर्वाद दे-जिससे मैं कभी साधना से विरत न हो सकें. मैं जीवन की अन्तिम घड़ी तक साधना से विरत न होऊंगा. यह प्रतिज्ञा आज मैं तेरा चरण-स्पर्श कर, करता हूँ ." गहजीवन में अध्ययन : 落落落落落落落落諾器路端济器諾諾諾派 स्वामीजी महाराज ने गुरुचरणों में पहुंचने से पहले महाजनी और हिन्दी भाषा का अध्ययन कर लिया था. ग्राम्य जीवन और शिक्षण की पद्धति के मानदण्ड के अनुसार एवं उस युग में जो अध्ययन करने-कराने की सुविधा थी,—स्वामीजी की पढ़ाई पूर्ण हो चुकी थी. माता ने भी समझ लिया था कि पुत्र लिख पड़ चुका है. अब इसके लिये परी-सी बहू लाऊंगी. मैं चांद-सी अपनी बहूरानी को एक निमिष भी अलग नहीं करूंगी. परन्तु विधि ने अपने अदृश्य हाथों से स्वामीजी म. के लिए तो पूर्व पुण्य के प्रतिफल स्वरूप योग-साधना का विधान कर दिया था. माता और पिता दोनों ही इस सत्य से अपरिचित थे. चरितनायक हजारीमलजी दीक्षा के उम्मीदवार होकर पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज की चरणसेवा में रह रहे थे. ज्ञान ध्यान में मन निमज्जित था. एक दिन माँ नन्दू के मस्तिष्क में पुत्र की संस्मृति गहरी उभर आई. भावना की उथल-पुथल में पुत्र को पत्र लिखा: "प्रिय हजारी, 'आज बैठे-बैठे मन भर पाया. नहीं रहा जा रहा है. मन की दुखन आँखों की बाट फूट कर बाहर आती है तब अपना कोई होता है या जिसे अपना मान लिया जाता है-उसे मन की दो बात कह कर दुःख से उफनती छाती में सबर पाता है. आज तुझे भी कुछ कहने को मन कर आया है. 'बात भी ऐसी कुछ नहीं है. पर बेसबर मन है. इसमें सहनशक्ति नहीं रहती है तो यह अपने रास्ते चलता है. मनुष्य सोचता है बस, अब कुछ हलकापन हो गया--मेरे मन की स्थिति भी ऐसी हो रही है. 'तेरा बड़ा भाई गोद चला ही गया था. मंझला था, वह भी उसके गोद जाते ही उसी के पास चला गया था. बेटी थी, वह अपने घर की हो गई. एक तू था, तू भी मुझसे अब दूर जा रहा है. खैर बेटा......छाती भर आई तो यह लिख दिया है......! बेटा, पत्र जल्दी-जल्दी दे दिया कर, -नन्दूबाई" AAPLAINTRE HAITANYOOO TRATHORTAIN RAJARE XONY Jain Educate Varary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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