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________________ --------------------- ३२२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय स्याद्वाद की मर्यादा के अनुसार काल, स्वभाव आदि कार्य की निष्पत्ति में कारण हैं, पर ये वियुक्त होकर किसी कार्य को निष्पन्न नहीं करते. इनका समुचित योग होने पर ही कार्य निष्पन्न होता है. आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में—'काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत और पुरुषार्थ'-ये पांचों कारण परस्पर निरपेक्ष होकर अयथार्थ बन जाते हैं और ये ही परस्पर सापेक्ष होकर यथार्थ बन जाते हैं." वस्तुस्थित्या कर्तृत्व स्वयं पदार्थ में होता है. प्रत्येक पदार्थ का संस्थान स्वयं संचालित होता है. काल आदि उसके संचालन में निमित्त कारण बनते हैं. पदार्थ और उसकी कारण-सामग्री से अतिरिक्त किसी शक्ति में कर्तृत्व का आरोप करने की कोई अपेक्षा नहीं. फिर भी कुछ दार्शनिक ईश्वरकर्तृत्व की स्थापना करते हैं. हरिभद्र सूरि ने स्याद्वाद भाषा में कहा-“कर्ता वही होता है जो परम ईश्वर है. आत्मा परम ईश्वर है. वह अपने स्वभाव-कार्य का कर्ता है. कर्तृवाद अमान्य ही नहीं, हमें मान्य भी है.२" कोई दार्शनिक स्थायित्व का आग्रह करता है, कोई परिवर्तन का. किन्तु स्याद्वादी दोनों का प्रत्येक वस्तु में समाहार करता है. इसीलिए उसकी दृष्टि में केवल स्थायी या केवल परिवर्तनशील पदार्थ होता ही नहीं. जिसमें विरोधी धर्मों का सह-अस्तित्व न हो, वह असत् है—वैसी वस्तु का कोई अस्तित्व ही नहीं है. समभाव स्याद्वाद का पूर्व रूप है और सह-अस्तित्व उसका फलित है. यदि सब पदार्थ या एक पदार्थ के अनेक धर्म अविरोधी ही होते तो पदार्थ एक ही होता और एक पदार्थ भी एक धर्म से युक्त होता, किन्तु ऐसा नहीं है और इसीलिए नहीं है कि अनेक विरोधी पदार्थ और हर पदार्थ में अनेक विरोधी धर्म हैं. जिनकी दृष्टि विषम होती है, वे ऐसा मानते हैं कि विरोधी वस्तुओं या धर्मों का सह-अस्तित्व हो ही नहीं सकता. किन्तु समदृष्टि वाले ऐसा मानते हैं कि सह-अस्तित्व, उन्हीं का होता है जो विरोधी अंशों से पृथक् अस्तित्व रखते हैं. यह वस्तु-जगत् के प्रति स्याद्वाद का सह-अस्तित्व सिद्धान्त है. धार्मिक जगत् के प्रति भी स्याद्वाद का फलित यही है. यह देखकर कष्ट होता है कि कुछ जैन विद्वान् स्याद्वाद का पूरा निर्वाह नहीं कर सके. वाद-विवाद के क्षेत्र में वैसे उतरे, जैसे एकान्तवादी दार्शनिक उतरे थे. समदृष्टि उतनी नहीं रही जितनी स्याद्वाद की पृष्ठभूमि में रहनी चाहिए. इसीलिए उसका फलित, सह-अस्तित्व, उतना विकसित नहीं हो सका, जितना होना चाहिए. श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों एक ही महावृक्ष की महान् शाखाएं हैं. उनके सिद्धान्त-निरूपण में भी कोई बहुत मौलिक अन्तर नहीं है. फिर भी दोनों शाखाओं के विद्वानों ने मतभेद की समीक्षा में ऐसे शब्द प्रयोग किये हैं, जो वांछनीय नहीं थे. लगता है कि स्याद्वाद की मर्यादा अब विकसित हो रही है. श्वेताम्बर और दिगम्बर धारा की दूरी मिट रही है. सह-अस्तित्व निष्पन्न हो रहा है. स्याद्वाद एक समुद्र है. उसमें सारे वाद विलीन होते हैं. जितने वचन-पथ हैं उतने ही नयवाद हैं, और जितने नयवाद हैं उतने ही दर्शन हैं. १. सन्मतिप्रकरण ३.५३ कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिस कारणेगतं । मिच्छत्तं ते चेवा (व) समासओ होंति सम्मत्तं ।। २. शास्त्रवार्तासमुच्चय २०७ परमैश्वर्ययुक्तत्वाद्, मत प्रात्मैव चेश्वरः। स च कर्तेति निदोषः कत्तु वादो व्यवस्थितः ।। ३. सन्मतिप्रकरण ३/४७ जावश्या बयणपहा तावइया चेव होंति एयवाया । जावश्या णयवाया तावश्या चेव परसमया ।। JainERESE marana O neDrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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