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________________ आचार्य श्रीतुलसी सर्वधर्म समभाव और स्याद्वाद धर्म एक ही है इसलिए 'सर्व-धर्म' ऐसा प्रयोग सही नहीं है. जब धर्म अनेक नहीं तब समभाव किन पर हो ? निश्चयदृष्टि से यह धारणा उचित है. व्यवहार की धारणा इससे भिन्न है. जब हम धर्म और सम्प्रदाय को एक ही शब्द से अभिहित करते हैं, तब धर्म अनेक हो जाते हैं और उन सब पर समभाव रखने का प्रश्न भी उपस्थित होता है. पर प्रतिप्रश्न यह है कि जो धर्म सम नहीं हैं उन पर समभाव कैसे रखा जाए? कोई धर्म अहिंसा का समर्थन करता है और कोई नहीं करता. क्या उन दोनों को सम-दृष्टि से देखा जाए? यह कैसे हो सकता है ? प्रकाश और धूमिल को सम नहीं माना जा सकता. जो विषम हैं, उन्हें सम मानना मिथ्या दृष्टिकोण है. किन्तु स्याद्वाद के संदर्भ में समभाव का अर्थ होगा अपने भावों का समीकरण. जिसका दृष्टिकोण अनेकान्तस्पर्शी होता है वही व्यक्ति प्रत्येक धर्म के सत्यांश को स्वीकार और असत्यांश का परिहार करने में सम (तटस्थ) रह सकता है. धर्म के विचार अनेक हैं. कोई कालवादी है, कोई स्वभाववादी. कोई ईश्वरवादी है, कोई यदृच्छावादी. कोई नियतिवादी है, कोई पुरुषार्थवादी . कोई कर्मवादी है, कोई परिस्थितिवादी. कोई प्रवृत्तिवादी है, कोई निवृत्तिवादी. श्वेताश्वतर-उपनिषद् में उल्लेख है कि-काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष—ये अलग-अलग विश्व के कारण नहीं हैं और इनका संयोग भी आत्मा के अधीन है, इसलिए वह भी विश्व का कारण नहीं है. आत्मा सुख, दुःख के हेतुओं के अधीन है, इसलिए वह भी विश्व का कारण नहीं हो सकता.' ब्रह्मवादी विचारधारा प्रवृत्त हुई तब उसके सामने ये अभिमत प्रचलित थे. महाभारत में हमें काल, स्वभाव आदि का समर्थन करनेवाले असुरों के सिद्धांत मिलते हैं. प्रह्लाद स्वभाववादी थे. इन्द्र ने उनसे पूछा- "आप राज्य-भ्रष्ट होकर भी शोक-मुक्त कैसे हैं ?"२ प्रह्लाद ने कहा- "मेरी यह निश्चित धारणा है कि सब कुछ स्वभाव से ही प्राप्त होता है. मेरी आत्म-निष्ठ-बुद्धि भी इसके विपरीत विचार नहीं रखती.' इसी प्रकार इन्द्र के प्रश्न पर असुरराज बलि ने काल के कर्तृत्व का समर्थन किया. नमुचि ने नियतिवाद के समर्थन में कहा-"पुरुष को जो वस्तु जिस प्रकार मिलनेवाली होती है, वह उस प्रकार मिल ही जाती है. जिसकी जैसी भवितव्यता होती है, वह वैसा ही होता है."५ १. श्वेताश्वतर १.२ कालः स्वभावो नियतिर्यहच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोगः एषां न त्वात्मभावा-दात्माप्यनोशः सुखदुःखहेतोः । २. महाभारत शान्तिपर्व २२३.११ ३. महाभारत शान्तिपर्व २२३.२३, २२७.७३ कालः कर्त्ता विकर्ता च, सर्वमन्यदकारणम् । नाशं विनाशमैश्वर्य, सुखं दुःखं भवाभवौ ।। ४. महाभारत शान्तिपर्व २२४। ५-६० ५. महाभारत शान्तिपर्व २२६.१० Kwww.Gonelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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