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________________ २६२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : द्वितीय अध्याय -0-0-0--0-0-0-0--0-0-. उखाड़ दिया गया. महात्मा बुद्ध की उदात्त आचारमीमांसा, उनका अविध सरलतम नैतिक विधान अहिंसा की आध्यात्मिक धारणा पर आधारित होता हुआ भी भारतीय जनता द्वारा इसलिये स्वीकार न किया गया कि उसमें तत्त्वात्मक प्रेरणा न थी. हमारे देश में केवल वे ही सिद्धान्त स्थिर रह सकते हैं जिनकी तत्त्वात्मक पृष्ठभूमि अत्यन्त दृढ़ है. भारतीय दर्शन के सिद्धान्त और व्यवहार का इतिहास यह प्रमाणित करता है कि तत्त्व-विज्ञान के विना आचारशास्त्र अन्धा है और आचारशास्त्र के विना तत्त्व-विज्ञान शून्य है. जैनवाद की सभी धारणाएं आचार सम्बन्धी तथा पूजा सम्बन्धी मतभेद रखते हुए भी इस बात में सहमत हैं कि आधारभूत सत्यों का यथार्थ ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति के लिये नितान्त आवश्यक है. उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार-'वही व्यक्ति सत् का आचरण करने वाला है जो आधारभूत सत्य ज्ञान में विश्वास रखता है'. जैनवाद के अनुसार जीव के बन्धन का एक मात्र कारण मिथ्यात्व अथवा आधारभूत सत्यों के प्रति मिथ्याज्ञान है. यही कारण है कि जैन आचारशास्त्र का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिये जैन तत्त्वमीमांसा पर प्रकाश डालना नितान्त आवश्यक है. वर्द्धमान महावीर ने जिन नव तत्त्वों को प्रतिपादित किया है वे आजतक जैन सिद्धान्त की आधारशिला हैं. ये नवतत्त्व निम्नलिखित हैं(१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य (४) पाप (५) आस्रव (६) बन्ध (७) संवर (८) निर्जरा (६) मोक्ष. इन तत्त्वों की व्याख्या जैनवाद में इसलिये की जाती है कि हम यह जान सकें कि जीव किस प्रकार संसारचक्र में फंसता है और उसे किन विधियों द्वारा मुक्त किया जा सकता है. यहाँ पर यह बता देना आवश्यक है कि वास्तव में जैनवाद के अनुसार जीव तथा अजीव दो मुख्य तत्त्व हैं और अन्य सभी तत्त्व इन दोनों के विभिन्न स्तर हैं. दूसरे शब्दों में जीव तथा अजीव दो आधारभूत सत्ताएं हैं, पुण्य पाप आदि उनकी उपाधियां हैं. जीव-जीव को चैतन्य माना गया है और ज्ञान तथा दर्शन उसके दो मुख्य लक्षण बताए गए हैं. जीव में पांच प्रकार के ज्ञान हैं, जिन्हें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ज्ञान कहा गया है. दर्शन चार प्रकार के हैं-चक्षु, अचक्षु, अवधि तथा केवल. किन्तु कर्म रूप पौद्गलिक द्रव्य के साथ सम्बद्ध रहने के कारण जीव का वास्तविक ज्ञान तथा वास्तविक दर्शन आच्छादित रहता है. इसलिये जीवनमुक्ति प्राप्त करने के लिये कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध हटा देना आवश्यक है. जीव का चरम लक्ष्य केवलज्ञान तथा केवलदर्शन एवं सर्वज्ञता प्राप्त करना है. यह तभी सम्भव हो सकता है, जब जीव पूर्णतया उन कर्मों से पृथक् हो जाय, जिनमें वह आस्रवों के द्वारा लिप्त है. प्रत्येक अवस्था में जीव बन्ध में होता है. जीव की ये अवस्थाए पृथ्वीकाय (पृथ्वी सम्बन्धी जीव) अप्काय (जल संबंधी जीव) वनस्पतिकाय (वनस्पति सम्बन्धी जीव) पशु, मनुष्य, देवता तथा दैत्यादि हैं. ये सभी जीव कर्मबन्धन में होते हैं. केवल मुक्त जीव ही कर्मपुद्गलरहित होता है. अजीव-जनदर्शन के अनुसार धर्म अधर्म. पुद्गल, आकाश तथा काल पाँच ऐसे द्रव्य हैं जिन्हें अजीव कहा गया है. धर्म तथा अधर्म जैन परिभाषा के अनुसार विशेष अर्थ रखते हैं. यहां पर धर्म का अर्थ सद्गुण अथवा धार्मिक विश्वास न होकर गति का आधारभूत नियम है. धर्म वह द्रव्य है, जो एक विशेष रूप से गति को सहायता देता है. वह सूक्ष्म-सेसूक्ष्म द्रव्य है और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति को संभव बनाता है. इसी प्रकार अधर्म वह द्रव्य है, जो विशेष रूप से वस्तुओं की स्थिति में सहायक होता है. दूसरे शब्दों में धर्म का लक्षण गति है और अधर्म का लक्षण स्थिति है. पुद्गल निस्संदेह विशुद्ध भौतिक द्रव्य का नाम है. इसमें रस, रूप, गन्ध आदि के गुण उपस्थित रहते हैं. इसका विश्लेषण तथा सम्मिश्रण हो सकता है. यह आणविक है और इसका आधार होता है, इसलिये पुद्गल को रूपी कहा गया है. इसका सूक्ष्म-सेसूक्ष्म रूप अणु है और स्थूल-से-स्थूल रूप समस्त भौतिक विश्व रूप है. जैनदर्शन के अनुसार लम्बाई, चौड़ाई, सूक्ष्मता, स्थूलता, हल्कापन और भारीपन, बन्ध, पार्थक्य, आकार, प्रकाश तथा अन्धकार और धूप एवं छाया सभी पौद्गलिक तत्त्व हैं. जीव के बन्ध का अर्थ कर्मपुद्गल से प्रभावित होना है और निर्जरा का अर्थ पुद्गल का क्षय है. पुद्गल के इस रूप की व्याख्या करना इसलिये आवश्यक है कि जैन आचारशास्त्र का मुख्य उद्देश्य कर्मपुद्गल का अन्त करना है. संन्यास के नियमों का कठोरता से पालन करने एवं सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्चरित्र के अनुसरण करने का Jain Education memona A For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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