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________________ -0----0-0------------ २६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय के समर्थकों ने यह अनुभूत किया कि इस योजना की सफलता में दो मुख्य बाधाएँ थीं. प्रथम बाधा यह थी कि जब व्यक्ति एक बार गृहस्थजीवन में प्रविष्ट हो जाता है तो उसके लिये विषयभोग आदि का त्यागना तथा काम, क्रोध, मोह एवं लोभ से मुक्त होना अत्यंत कठिन हो जाता है. तृष्णा अनन्त है और उसकी तृप्ति कदापि संभव नहीं है. इस दृष्टिकोण को उत्तराध्ययन सूत्र में निम्न लिखित शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है"और यदि कोई व्यक्ति एक मनुष्य को सम्पूर्ण पृथ्वी भी दे दे, तो भी वह उसके लिये काफी न होगी. किसी भी व्यक्ति को तृप्त करना अत्यंत कठिन है. तुम जितना अधिक प्राप्त करोगे, उतनी ही अधिक तुम्हारी आवश्यकता बढ़ेगी. तुम्हारी वासनाएँ तुम्हारे साधनों के साथ-साथ बढ़ती चली जायेंगी." दूसरी बाधा यह है कि संन्यासजीवन की यह ऋमिक योजना, यह मानकर चलती है कि जीवन की कम से कम अवधि एक सौ वर्ष है. वास्तव में जीवन अस्थिर है और किसी भी क्षण एक धागे की भांति टूट सकता है. यदि एक बार व्यक्ति, अपने आध्यात्मिक विकास के अवसर से चूक जाय, तो उसे पुनः मनुष्य का जन्म लेने के लिये युगों की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है. विख्यात जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है"जिस प्रकार वृक्ष का सूखा पत्ता किसी भी समय गिर जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी समाप्त हो जाता है. हे गौतम ! तुम हर समय सावधान रहो ! जिस प्रकार कुशा के तिनके पर लटकी हुई ओस की बूंद क्षण भर के लिये ही अस्तित्व रखती है, मनुष्य का जीवन भी वैसा ही अस्थिर है. गौतम ! तुम हर समय सावधान रहो !" विश्व के अनेक विचारकों ने जीवन की अनिश्चितता से प्रभावित हो कर क्रियात्मक सांसारिक जीवन को निरर्थक घोषित किया है. बुद्ध ने दुःख तथा जीवन की अनिश्चितता से प्रेरित हो कर ही संसार को त्याग दिया. वह अशोक महान् , जिसका नाम विश्व के इतिहास में प्रेम और शान्ति का प्रतीक माना जाता है, इसी प्रकार दुःख तथा जीवन की अनिश्चितता से प्रभावित हुआ. विख्यात पाश्चात्य दार्शनिक काण्ट की उदात्त नैतिकता और विश्वव्यापी शुभ संकल्प की धारणा भी मानवीय दुःखों के अनुभव से ही प्रेरित थी. काण्ट एक कड़े नैतिक अनुशासन में विश्वास करता था. यही कारण है कि जैनवाद में कठोर नैतिक अनुशासन पर बल दिया गया है. इसलिये महावीर ने साधुओं के लिये ऐसे नैतिक नियम निर्धारित किये, जो उन्हें पूर्णतया विरक्त बना दें. जैनवाद के नैतिक सिद्धांत की व्याख्या करते हुए हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि विशेषकर साधु अथवा मुमुक्षु के लिये सत्य, अहिंसा ब्रह्मचर्यादि महाव्रतों का पालन विशेष महत्त्व रखता है और उनका अनुसरण करने के लिये विशेष सावधानी की आवश्यकता है. एक साधु अथवा साध्वी के लिये अहिंसा का व्रत स्वयं धारण करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु इस के साथ-साथ उसके लिये स्वयं हिंसा न करना और न ही किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा किसी प्रकार की हिंसा करवाना अनिवार्य है. इसी प्रकार एक साधु के लिये स्वयं असत्य न बोलना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु हर प्रकार के असत्य का बहिष्कार करना और मन, वचन तथा काया से असत्य का साधन न बनना भी आवश्यक है. इसी प्रकार अस्तेय अथवा अचौर्य के महाव्रत को धारण करने का अर्थ न स्वयं चोरी करना और नहीं प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में चोरी का समर्थन करना है. ब्रह्मचर्य का महाव्रत एक साधु से यह आशा रखता है कि वह हर प्रकार के कामप्रवृत्यात्मक सम्पर्क से मुक्त हो और ऐसे कर्मों का साधन भी न बने. जैनवाद के अनुसार पांचवां महाव्रत अपरिग्रह का है. इस के अनुसार साधु के लिये स्वयं किसी भी सम्पत्ति को न रखना और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा संचित संपत्ति का साधन न बनना भी आवश्यक है. इन पांच महाव्रतों का पालन करना प्रत्येक मुमुक्षु के लिये आवश्यक है. इस प्रकार का कड़ा नैतिक अनुशासन इसलिये प्रतिपादित किया गया है कि जैनवाद मोक्ष को चरम लक्ष्य मानता है. इससे पूर्व कि हम जैनवाद की आचारमीमांसा की व्याख्या करें, हमारे लिये यह आवश्यक है कि हम तत्त्ववाद तथा आचारशास्त्र के अभेद-सम्बन्ध पर एक बार दृष्टि डालें. Jain Edue. RPe CON HDary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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