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________________ २६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ہممممممممم तात्पर्य यह है कि मनुष्य-समाज के समक्ष आज जो समस्याएँ, जो भी कठिनाइयाँ हैं, उनका अस्तित्व इसीलिये है कि हमें जीवन का, जीवन के उद्देश्य का, जीने की पद्धति का स्पष्ट ज्ञान नहीं है. यदि हमें यह ज्ञान हो जाय तो आज ध्वंस के कगार पर खड़ी हुई मानवता की रक्षा निश्चित रूप से हो सकती है. और इस ज्ञान की मशाल को मजबूती से अपने हाथों में चिर काल से-अनादि काल से थामें हुए जैनदर्शन एक अचल ज्योतिस्तम्भ के समान खड़ा है. आइये, हम जरा विचार करें कि जैनदर्शन हमारे सामने क्या सिद्धान्त उपस्थित करता है. जैनदर्शन की विशिष्ट प्राचारपद्धति कौन नहीं जानता कि हमारा मन, मनुष्य मात्र का मन, आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा इन पांचों इन्द्रियों के सहयोग से कार्य करता है. यदि इनमें से एक भी इन्द्रिय कार्य नहीं करती तो जीवन खंडित हो जाता है. ठीक इसी प्रकार जनदार्शनिकों ने मनुष्य के आचरण--मनुष्य के जीवन-व्यवहार के लिए एक ऐसी विशिष्ट आचारपद्धति बताई है जिसका अनुसरण और पालन यदि हम करने लग जायं तो यह निश्चित स्पष्ट और अवश्यम्भावी है कि हमारे सामने आज जो हमारे विनाश का भय उपस्थित हो गया है उससे हमें सहज ही मुक्ति मिल जाय तथा मानव-समाज एक सुखी समाज बन जाय. इस आचारपद्धति के प्रमुख सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं :- (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य (५) अपरिग्रह. इन महान् अर्थगम्भीर और परम कल्याणकारी सिद्धान्तों के विषय में शाब्दिक दृष्टि से हम प्रायः लोगों को बात-चीत करते देखते हैं. लेकिन उनमें से कितने हैं जो इनके वास्तविक अर्थ को समझते हैं ? कितने हैं जो गम्भीरता से इनके मर्म पर विचार करते हैं ? इनका पालन करना तो दूर-बहुत दूर की बात है. ये सिद्धान्त इतने महान् हैं कि इनमें से प्रत्येक पर अलग-अलग विशाल ग्रंथों की रचना की जा सकती है. किन्तु हम यहाँ पर उनका अत्यन्त संक्षेप में विवेचन करेंगे और देखेंगे कि आज के जगत् को वह कितनी बड़ी शक्ति, कितना अनन्त प्रकाश और सुख देने की सामर्थ्य रखते हैं. अहिंसा शब्द आज विश्वव्यापक बन चुका है. किन्तु अहिंसा का बहुत स्थूल अर्थ ही अधिकतर लोगों ने समझा है. लोग समझते हैं कि दूसरे मानव को दुख पहुँचाने वाला कोई कार्य नहीं करना ही अहिंसा है. यह बहुत ही सीमित अर्थ है. हिंसा के सच्चे अर्थ में केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़े इत्यादि सूक्ष्म जीवों की हिंसा भी वयं है. क्योंकि उनकी हिंसा करने से भी हमारा हृदय कठोर और क्रूर बनता है. और कठोर और क्रूर हृदय में सात्विक भाव जाग्रत नहीं होते. पूर्णतया और सही अर्थ में अहिंसा का पालन करना ही जीवन को नींव से सुन्दर और सुखी बनाने का उपाय है. जैन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धान्त की यही विशेषता है कि वह अपनी इस महान् भावना को न केवल मनुष्य तक ही, बल्कि जीव मात्र तक विस्तारित करता है. इस सृष्टि में अपना सूक्ष्म से सूक्ष्म भी अस्तित्व रखने वाले प्रत्येक प्राणी को जैनदर्शन एक स्वतंत्र आत्मा स्वीकार करके उसके हित और उपकार की भावना पर बल देता है. जैन अहिंसा का यही बास्तविक, व्यापक और विशिष्ट स्वरूप है. यदि संसार इस व्यापक स्वरूप में इसका पालन करे तो यह संसार ही स्वर्ग के समान सुख का स्थान बन जाय, सत्य का अर्थ है असत्य कथन अथवा विचार न करना. असत्य में हिंसा भी निहित है. हमारे असत्य वचन अथवा असत्य आचरण से किसी अन्य को दुःख अवश्य होगा. और धर्म तथा दर्शन का विचार करने वाले पाठकों को विस्तार से यह समझाने की आवश्यकता नहीं कि अन्य को दिया गया दुःख स्वयं हमारे लिये क्या लेकर आएगा? अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना. यहाँ इस चोरी शब्द का अर्थ केवल कानून की भाषा के अर्थ तक ही सीमित नहीं समझना चाहिए. इसका अर्थ है जो हमारा नहीं है, न्यायपूर्वक हमारा नहीं है उसे स्वीकार नहीं करना. ऐसी कोई भी वस्तु लेना, जिस पर न्यायपूर्वक हमारा अधिकार न हो, चोरी माना गया है. YOOO .9 । -IDIRLन ope... 6 Jain luetom) Pration arrivandersondisecs e । jandiary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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