SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान भारिल्ल : अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन : २६५ आज का संकटग्रस्त संसार, जीवन और जैनदर्शन अाजका युग, अाज का संसार---यह भौतिक वाद की ओर अन्धा होकर दौड़ता चला जा रहा मानव-समाज विनाश के अतल गर्त के कितना समीप आ पहुंचा है, इस बात को कौन समझदार व्यक्ति नहीं जानता? आज के मनुष्य का जीवन कितना संदिग्ध और उलझनों से भरा हुआ प्रतीत होता है ? ऐसा लगता है कि चारों ओर सघन अन्धकार परिव्याप्त है और कहीं किसी दिशा में कोई एक भूली-भटकी किरण भी दिखाई नहीं देती. हम आँखें होते हुए भी अन्धे बने हैं. प्रकाश की उपेक्षा करके अन्धकार की ओर दौड़ें तो यह हमारा ही अज्ञान है. किन्तु यदि अपनी सहज बुद्धि का उपयोग करें, तटस्थ तथा निष्पक्ष भाव से विचार करें तो हमारे लिए निराशा का कोई कारण नहीं है. अनन्त और अमर आशा का संदेश लिये हुए जैनदर्शन और जैनधर्म के युग-युगान्तरों से चले आ रहे अटल सिद्धान्त हमारे द्वार पर खड़े हैं. आवश्यकता इतनी ही है कि हम अपने हृदय के, मन के अवरुद्ध कपाट उन्मुक्त करें और उन सिद्धान्तों का स्वागत करें जो हमारे जीवन को, हमारी सृष्टि को, हमारे अस्तित्व को सुरक्षित तथा उन्नत करने के लिये उपस्थित हैं. आज हमें जीवन एक समस्या के समान प्रतीत होता है. हम चारों ओर से परेशानियों और झंझटों से अपने आपको घिरा हुआ अनुभव करते हैं. क्या इसका कारण कभी हमने शान्त चित्त से विचारा है ? इसका एक मात्र कारण है कि हम अपने सहज स्वभाव को भूल बैठे हैं. मनुष्य जीवन के जो वास्तविक और हितकारी सिद्धान्त हैं उन्हें हमने त्याग दिया है और हम इन झूठे और भ्रामक आकर्षणों की ओर दौड़ रहे हैं जो मात्र भौतिक हैं, अस्थायी हैं, और इसीलिए असत्य हैं. सत्य का मार्ग जैनदर्शन जब हमें बतलाता है तो हम, चूंकि हमें बुद्धिवादी होने का भ्रम और गर्व है, अपना मुंह बनाकर कहते हैं—यह साधु-संन्यासियों की बातें हैं, भला इस संसार में यह कहीं चलता है ! यह साधु संन्यासियों की बातें भला आपके इस असाधु, इस जड़-अनुरक्त संसार में कैसे चल सकती हैं ? और नहीं चल सकतीं तो न चलने दीजिए. इससे सत्य को हानि नहीं है. आप हिंसक बने रहिए, अपने ही हाथों मानवता का खून कीजिए, अपने ही अस्तित्व को अपने ही हाथों विनष्ट कर दीजिए—इसमें अहिंसा के पवित्र तत्त्व की कोई हानि है ? आप शायद विचार कर रहे हैं, विचार बड़ी उपयोगी वस्तु है, विचारिए............ आज की मानवता, मानवसमाज के सन्मुख जो समस्या है वह मनुष्य के अपने ही स्वार्थ, दुर्बलता और अज्ञान के कारण है. आज का मनुष्य कठिनाई का सामना करने को तैयार नहीं है, वह कठिनाई से तो मुंह मोड़ कर भागता ही है, स्वयं अपनी दुर्बलताओं को भी स्पष्ट रूप से समझने से कतराता है. यह मनुष्य की पलायनवृत्ति (Escape tendency) है. और विश्वास कीजिये जब तक यह वृत्ति मनुष्य में है तब तक वह किसी भी प्रकार अपना हित नहीं कर सकता. उसे निरन्तर अवनति और विनाश की ओर ही खिसकते चले जाना होगा. जीवन में किसी भी दु:ख अथवा समस्या के आ पड़ने पर उसे दूर करने, उसका समाधान ढूंढ निकालने का मार्ग क्या है ? जैनदर्शन कहता है कि अपने विवेक का उपयोग करो, यह विचार करो कि वह दुख क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसका कारण क्या है, उसे दूर करने का उपाय क्या है ? दुख आया है तो उसके सामने हमारे पास जो सुख हो उसका विचार हमें करना चाहिए. ऐसा विचार हमारे मन को शान्त और सुव्यवस्थित करेगा. इस तरह शान्त बने हुए चित्त से अपनी विवेक-बुद्धि का उपयोग करके यदि हम विचार करने लगेंगे तो हमें साफ दिखाई देगा कि आया हुआ, अथवा माना हुआ वह दुख दूर किया जा सकता है. उस दुख के पीछे ही सुख भी रहा हुआ है. हम उस दुख के कारणों को जान सकेंगे. और कारण जानने के बाद हम उसे दूर करने का पुरुषार्थ भी कर सकेंगे. इस प्रकार की समझ और उस समझ से दिखाई पड़ने वाला उन्नति का एवं सुख का राजमार्ग हमें केवल स्याद्वाद के द्वारा ही मिलेगा. JainEduca www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy