SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Educato मुनि कान्तिसागर लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २२३ जीवराजजी - प्रसंगतः यहाँ एक ऐसे कवि का परिचय देना आवश्यक जान पड़ता है जो अद्यावधि उपेक्षित रहा और लोकागच्छ के साहित्यकारों में जिसका अपना स्वतन्त्र स्थान है. मेरा तात्पर्यं सोमजी शिष्य कवि जीवराजजी से है. इनका नाम किसी भी प्रकाशित जैन इतिहास विषयक कृति में नहीं आया है. आचार्य जसवंत की विद्यमानता में ही इनने पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली होगी, पर पट्टावलियों में तो वही स्थान पाता है जो सम्प्रदाय का नेता हो या किसी विशिष्ट घटना से जिसका सीधा सम्बन्ध रहा हो. सामान्य मुनिजन, चाहे प्रतिभासम्पन्न ही क्यों न हो, का उल्लेख सम्भव ही नहीं. इन पंक्तियों के लेखक की दृष्टि में जीवराज वह मुनि और कवि है जिसने लोकागच्छीय परम्परा को समुज्ज्वल किया है. यद्यपि इन्होंने कोई बृहदाकार कृति का सर्जन नहीं किया, न वे आचार्य पद से समलंकृत थे, पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है इनकी जिन चौवोसी की रचना, जो इस सम्प्रदाय का गौरव है. यों तो और भी भक्तिमूलक जीवन के अभिलाषियों ने प्रभु के चरणों में आत्म-निवेदन स्वरूप स्तुतिपरक रचनाएं अवश्य की होंगी, पर जीवराजजी का इस दिशा में जो प्रयास है वह अपने ढंग का अकेला ही है. इस एक ही कृति ने कवि को गुणमूलक परम्परा के कारण अमरत्व प्रदान किया है, कवि आत्मवृत्त पर मौन है. केवल एक स्थान पर अपने गुरु सोमजी का नाम निर्देश किया है. वैयक्तिक जीवन, दीक्षा आदि सभी कुछ भौतिक परिचय तिमिराच्छन्न है. पर उनकी वाणी उनके हार्द और ऊर्जस्वल व्यक्तित्व का परिचय भली भाँति दे देती है. वस्तुतः साहित्यिकों का जीवन-मापदण्ड उनकी कृतियां ही होती हैं - जिनमें जीवन के विविध अनुभवों का संचय सुरक्षित रहता है. इनकी चौवीस तीर्थंकरों की स्तुतियों का संग्रह मेरे हस्तलिखित चित्कोश में है. इसे देखते हुए तो यही पता लगता है कि कवि को चौवीसी लिखने का विचार नहीं था, जब कुछ स्तवन रचे गये तो बाद में अवशिष्ट तीर्थंकरों के स्तवन भी सम्मिलित कर चौवीसी का रूप दे दिया, यह मैं इसलिये लिख रहा हूं कि जिन स्तवनों में रचनाकाल है उनसे यह विचार स्वयं बन जाता है. उदाहरणार्थ भगवान् ऋषभदेव का बृहत्स्तवन सं० १६७६ की रचना है तो महावीरस्तवन सं० १६७५ की कृति है. आनंदघन और देवचंदजी के स्तवनों में जितनी आत्मपरक भावनाएं प्रस्फुटित हुई हैं उतनी अन्यत्र नहीं. आध्यात्मिक भावों का उद्दीपन ही तो भक्ति में वांछनीय है. इसके विपरीत केवल आकांक्षाओं को बलवती बनाने की भावनाओं को प्रोत्साहन देना स्तुति - साहित्य के लिये कलंक है. जीवराजजी की चौवीसी इन अपवादों से परे है. इसमें केवल तीर्थंकरों के गुणों का ही विशद् विवेचन है. सैद्धान्तिक दृष्टि से यह कृति अनुपम है. चौवीसियों में प्रायः देखा गया है कि एक ही गेय पद में एक स्तवन समाप्त हो जाता है, पर इस की विशेषता है कि एक ही तीर्थंकर का स्तवन कई ढालों में है. ऋषभदेव स्तवन ७५ गाथाओं में है. जिन स्तवनों में रचनाकाल है उनका ऐतिहासिक दृष्टि से थोड़ा महत्व होने से उद्धरण देना आवश्यक जान पड़ता है-१. आदिनाथ स्तवन का अन्तिम भाग संवत् सोल छिहत्तरा बर श्रावण चावेल) चौमासि मन उल्लसिं क जे भावे भणसई नित्य थुणसई सिद्ध जोडी हरष कोडी गुण जंपै ऋषि स्तवन थाय तस कर वीर स्तवन - अन्त भाग सुदि पंचमी सार ए । रविवार ए । काज जीवराज ए ॥ संवत सोल पंचोत्तरा वरषे आषाढ़ सुद दसमी सार ए शुक्रवारे तवन रच्यु जेतपुर नगर मकार ए ऋषि सोमजी सदा सोभागी जेहनो जस पार ए तास सेवक ऋषि जीवराज जपै सकल संघ जयकार ए ।। ए । 300300301300300300300303003083030300302302308 30 2306 Rर हर हर हर ह y.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy