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________________ PRMANNERMIREMENMARAMNRNAMA दलसुखभाई मोलवणिया : लोकाशाह मत की दो पोथियां : १८५ श्री लोकाशाह स्थानकवासी सम्प्रदाय के आदि संस्थापक माने जाते हैं. किन्तु उनके विषय में तथा उनके द्वारा रचित साहित्य के विषय में हमारा ज्ञान अत्यल्प है. उनके विरोधियों ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, उसी को आधार मान कर अभी तक लोंकाशाह का इतिहास लिखा गया है. अब तक यह खोज नहीं हुई कि उन्होंने स्वयं या उनके अनुयायियों ने क्या कुछ लिखा है. सही जानकारी के लिए और उनके प्रामाणिक इतिहास के लिए यह आवश्यक है कि उनका लिखा या उनका उपदिष्ट कुछ साहित्य खोजा जाय. इस ओर मेरी अभी-अभी प्रवृत्ति हुई है. मैंने कुछ हस्तलिखित प्रतियों का निरीक्षण किया तो पता लगा कि श्री लोकाशाह के विरोधियों ने जो लिखा है उसमें यह विवेक नहीं किया गया कि स्वयं लोकाशाह ने क्या कहा और उसके बाद उनके अनुयायियों ने (जो कालक्रम से होते आये हैं) क्या कहा ? अतएव विपक्षियों के इस साहित्य से यथार्थ बात सामने नहीं आती. किन्तु समग्र रूप से स्थानकवासी सम्प्रदाय की क्या-क्या बातें थीं, यही केवल जाना जाता है. किस क्रम से यह सम्प्रदाय आगे बढ़ा और लोंकाशाह ने कितनी बातें कहीं और कितनी बातें बाद के आचार्यों ने उसमें जोड़ी, यह जानने का ठीक साधन अभी तक मुद्रित रूप में हमारे सामने नहीं आया. मैंने हस्तलिखित प्रतियों में खोजना प्रारम्भ किया कि स्वयं लोकाशाह को क्या बातें मान्य थीं ? सद्भाग्य से मेरे सामने ऐसी दो हस्तलिखित प्रतियां आई हैं जिनके विषय में यह कहा जा सकता है कि उनका सीधा संबन्ध लोकाशाह से है. इन दो प्रतियों का परिचय यहां देना है और इनके फलितार्थ पर कुछ विवेचन करना है. इन दो प्रतियों की नकलें लोकाशाह के विरोधियों ने की हैं, क्योंकि एक में लुंका के स्थान पर संस्कृत में 'लुपक' लिखा हुआ है और दूसरी में प्रति की समाप्ति के अनन्तर लिखा है—इसमें जो लिखा है वह श्रद्धा के लिए नहीं, अपितु लोकाशाह क्या मानते हैं, उसे दिखाने के मन्तव्य से लिखा है. तथापि दोनों प्रतियों में लिखित मूल मन्तव्य तो लोंका के ही हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं. क्योंकि एक में स्पष्टरूपेण लिखा है कि यहाँ लोकाशाह के द्वारा जिन ५८ बोल-बातों की श्रद्धा की गई है तथा जो उन्होंने किया है वही लिखा जाता है. एक में ५८ तो दूसरी में ३३ बोल हैं. इतनी सामान्य-चर्चा के बाद अब दोनों प्रतियों के आधार पर जो मत फलित होता है उसकी चर्चा की जाय. यह तो निश्चित है कि लोंकाशाह ने मूर्ति का निर्माण, मूर्ति की पूजा, मूर्ति की प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा आदि मूर्तिपूजा के साथ संबन्ध रखने वाली सभी बातों में हिंसा देखी है. दया के नाम पर या अहिंसा के नाम पर उनका विरोध किया है. उन्होंने यह बताने का प्रयत्न किया है कि शास्त्र में मूर्तिपूजा को कर्तव्य या आवश्यक कर्तव्य में स्थान नहीं है. द्रौपदी जैसी किसी व्यक्ति द्वारा मूर्तिपूजा करने का उल्लेख यदि शास्त्र में है भी तो इसका तात्पर्य इतना ही है कि उसने मूर्ति की पूजा सांसारिक प्रयोजनों से की है, मोक्ष के लिए नहीं. मूर्तिपूजा हिंसा का काम है अतएव वह धर्मकार्य नहीं है, इस बात की सिद्धि करने के लिए श्री लोकाशाह ने जहाँ कहीं से, जो भी आगम-वाक्य का सहारा मिला, उस सभी का उपयोग करके एक ही बात कह दी है कि दया में धर्म है और हिंसा से संसार. अतएव मूर्ति-पूजा अकरणीय है. उनके इस आग्रह का खंडन कई विद्वानों ने योग्य उक्तियों द्वारा करने का प्रयत्न किया है. और सम्भवतः उन उक्तियों का ही फल है कि आज स्थानकवासियों में मूर्तिपूजा का भले ही प्रचार न हुआ हो किन्तु लोंका गच्छ में तो मूर्तिपूजा का प्रचलन हुआ ही है. तत्कालीन धार्मिक इतिहास का पर्यालोचन किया जाय तो विदित होगा कि देश की धार्मिक आवश्यकताओं में से ही मूर्तिपूजा जैन धर्म में आई है और वह स्थिर रहने के लिए ही आई है. उसका सर्वथा उन्मूलन नहीं हो सकता है. मूर्तिपूजा में कई प्रकार के आडम्बर आ गए हैं और उनका निराकरण जरूरी है किन्तु आडम्बरों के साथ मूर्तिपूजा को भी उठा देना संभव नहीं है... लेकिन लोंकाशाह को तो एक बात का विरोध करना था. अतएव अति आग्रह किये विना उनका काम चल नहीं सकता था. समाधान-वृत्ति को अपनाने पर या समन्वय-वृत्ति को अपनाने पर तो धर्म में भी मूर्ति को स्वीकार करना पड़ता और ऐसी स्थिति में मूर्तिपूजा का आत्यन्तिक विरोध सम्भव नहीं रह जाता, ऐसे आत्यन्तिक विरोध में से ही सम्प्र TERNANING WATARY Jain Edation larations Use Swosiainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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