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________________ मुनि लक्ष्मीचन्दजी : एक खोज-पूर्ण आलेख : १६७। किया. उनके द्वारा इस परम्परा में दीक्षित होने वालों का समुदाय आगे चल कर जयमलजी सम्प्रदाय के नाम से अभिहित हुआ. कबीर, नानक नहीं चाहते थे कि मेरी सत्रिय विचारधारा को मेरे अनुयायी मेरे नाम से अभिहित करें. ठीक इसी प्रकार मुनि श्रीजयमलजी महाराज ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी कि श्रमणसंघ की इस धारा की उपशाखा के रूप में मेरा नाम संयुक्त किया जाय. पर तदुत्तरवर्ती मुनियों ने अपने परमोपकारी की स्मृति सुरक्षित रखने के लिये नाम संयुक्त कर लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं. यों तो प्रत्येक सम्प्रदाय के जैन मुनियों का जीवनक्रम अंतर्मुखी अर्थात् मूलगुणमूलक ही होता है, फिर भी जयमलजी ने मूल गुण की रक्षा करनेवाले उत्तर गुणों को भी उल्लेखनीय प्रश्रय दिया और अपने सम्प्रदाय में कुछ ऐसे संशोधन समुपस्थित किये जिनसे संयम की साधना को आन्तरिक बल प्राप्त हो सके. XXNXNNERRENER288449396 - ~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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