SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय ****** 2222880*20MINE एक सीमा में उलझा दे. साधना का क्षेत्र स्पष्ट और अहिंसावादी अपेक्षित है. स्व के अतिरिक्त पर को आत्मोत्थान में स्थानकवासी परम्परा साधक बाधक नहीं मानती. स्थानकवासी मुनि-समाज ने भले ही विद्वद्भोग्य साहित्य की उल्लेखनीय सेवा न की हो पर सांस्कृतिक दृष्टि से जन-जीवनउन्नयन के लिए जो सूत्रात्मक एवं गेय कृतियां रची हैं उनका अपना स्थान है. सन्त-साहित्य का आलोचक वर्ग इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता. सामान्य पद्यों में अनुभवमूलक सत्य सीमित शब्दावली में समुपस्थित करना, दीर्घकालीन सक्षम साधक के लिए ही संभव है परन्तु बड़े ही खेद और परिताप के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आज के वैज्ञानिक और शोधप्रधान युग में भी हमारा विद्वान् मुनि-समुदाय अपने ही पूर्वजों की कृतियों के प्रति उदासीन है. यही कारण है कि हमारे पास साहित्यिक शृंखलाएँ विद्यमान होने के बावजूद भी इसका व्यवस्थित व प्रामाणिक इतिहास सामने नहीं आया है. किसी भी समाज की उच्चता और दर्शनमूलक परम्परा का वास्तविक परिचय उसके साहित्य में प्रतिबिम्बत होता है. प्रस्तुत प्रबन्ध में धर्मदासीय परम्परा के एक प्रतिभासम्पन्न मुनि श्रीरूपचन्द्रजी महाराज-जो आचार्य श्रीजयमलजी महाराज के सुशिष्य थे—के सम्बन्ध में कतिपय विचार उपस्थित किए जा रहे हैं. जयपुर, जोधपुर, रतलाम, बालोतरा आदि पश्चिमीय भारत इनका विहारक्षेत्र रहा था. इनकी औपदेशिक वाणी का प्रभाव महलों से लगाकर झोंपड़ों तक विस्तृत था. उच्चादर्शमूलक संयममय जीवन व्यतीत करते हुए आत्मानुभूति को लिपिबद्ध कर इन्होंने जो विचारकण देश्य भाषा में प्रस्तुत किए हैं, उनसे विदित होता है कि चारित्र की एकनिष्ठ साधना में वे इतने तन्मय थे कि उसमें तनिक भी शैथिल्य क्षम्य नहीं मानते थे. जैसा कि इनकी ४७ पद्यात्मक एक लघुकृति से अवगत होता है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि विक्रम की १८वीं शताब्दी में समाज में, बड़ा विषम वातावरण था. कई सम्प्रदायों के उपसम्प्रदाय, व्यक्ति विशेष के प्रभाव के कारण बनते जा रहे थे. स्थानकवासी समाज भी इस प्रभाव से अपने आपको न बचा सका. मुनिजीवन के दैनिक आचारों में स्वल्प शैथिल्य प्रविष्ट हो गया था. गुणों के स्थान पर व्यक्तिपूजा पनप रही थी. मुनि रूपचन्दजी ने इनका विरोध करते हुए मुनि समाज को निरतिचार जीवनयापन करने की महती प्रेरणा दी. घोषित किया कि जब हमें आत्मोत्कर्ष के स्वर्णिम पथ का अनुसरण करना है और जनजीवन को नये मानदण्ड के आधार पर उच्च स्थान पर प्रतिष्ठापित करना है तो हमारा आंतरिक जीवन अत्यन्त शुद्ध और उच्च आदर्शानुव्यंजक होना चाहिए. उच्चाचार ही साधुजीवन का सौरभ है. समाज और राष्ट्र का वास्तविक उत्थान सदाचारिक और संयमशील मुनिपरम्परा पर ही अवलंबित है. निराकांक्षी जीवन ही प्रेरणा का स्रोत बन सकता है और राष्ट्रीय चरित्र का प्रतीक भी. मुनि रूपचन्द्रजी के समय राजस्थान सामंतवादी भोगविलासों में अनुरक्त था. उन दिनों सन्तों की साधना जनजीवन को उद्दीप्त करती हुई नैतिक कर्तव्य के प्रति आकर्षित कर रही थी. यहाँ यह कहने की शायद ही आवश्यकता रह जाती है कि उपदेश के क्षेत्र में गद्य की अपेक्षा पद्यात्मक शैली राजस्थान के लिए अधिक उपयुक्त थी. उच्चतम आध्यात्मिक व नैतिक भावों को अभिव्यक्त करने वाली मुनि रूपचन्द्रजी की जिस स्फुट रचना का उपर्युक्त पंक्तियों में उल्लेख किया गया है उसका निर्माणकाल सं० १८२० का चैत्र और रचनाक्षेत्र नवसर ग्राम है. जैसा कि इन पंक्तियों से प्रमाणित है. संवत् अठारेवीसा ने समे, नवसर गाम मझार म०....। चेत महिने रे जोडज ए करी भव जीवां ने उपकार (सं० ४५)। राजस्थान में उन दिनों स्थानकवासी सम्प्रदाय कई उप-सम्प्रदायों में विभक्त था जैसा कि तात्कालिक साधुमार्गीय पट्टावलियों से स्पष्ट है. आचार्य श्रीजयमलजी महाराज ने अपनी आध्यात्मिक साधना के बल पर उन दिनों बीकानेर और जोधपुर नगर एवं तत्सन्निकटवर्ती बहुभाग में निवास करने वाले ओसवाल लोगों को स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित KHARDaily Sum m aNIA Dm 10 Jain ETC STATE y.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy