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________________ कमला जैन 'जीजी' एम० ए० आशाकिरण आचार्य आसकरणजी भारत की सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में चिरकाल से चली आ रही सन्तपरम्परा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है. यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि भारत की आदिम व उज्ज्वल संस्कृति के जन्मदाता यहाँ के योगी ऋषि और मुनि ही थे. जैन, वैदिक और बौद्ध धर्म व संस्कृति की धाराओं को ऋषियों और सन्त भिक्षुओं ने ही प्रवाहित किया और युगों तक गतिशील रखा. भारत के संतों ने त्याग और वैराग्यमय जीवन बिताने के साथ-साथ साहित्य की भी श्रीवृद्धि की. भारत का अधिकांश साहित्य मुनियों एवं ऋषियों की ही तपःपूत साधना का प्रसाद है. हिन्दी साहित्य को भी संतों की अपनी निराली देन है. तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास, आनन्दघन आदि के द्वारा रचित साहित्य भारत में ही नहीं वरन् विश्व-साहित्य में भी महत्त्वपूर्ण है. इसी सन्त-परम्परा में जैन आचार्य कवि आसकरण जी का स्थान आदरणीय है. आपका जन्म संवत् १८१२ मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को राजस्थान के तिंवरी नामक ग्राम में हुआ था. पिता का नाम रूपचन्द्रजी तथा माता का नाम गीगादे था. बचपन से ही आप बड़े प्रतिभाशाली व तेजस्वी थे. आपके मातापिता को आप पर बड़ा गर्व था तथा आपसे बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं. किन्तु उन्हें स्वप्न में भी संभावना नहीं थी कि उनका पुत्र संसार के भौतिक सुखों से भी ऊपर उठकर उनका व अपना नाम सदा के लिये अमर कर देगा. साढ़े सोलह वर्ष की आसकरण जी की अवस्था होते ही माता-पिता ने उनका विवाह करना चाहा किन्तु उन्होंने स्पष्ट इन्कार कर दिया और सब स्वजन-परिजनों को छोड़कर संयम लेने का पक्का इरादा कर लिया और शीघ्र ही उस अल्प वयस् में ही आपने आचार्य श्रीजयमलजी म० के श्रीचरणों में वि० सं० १८३० वैशाख कृष्णा पंचमी को दीक्षा ग्रहण की. दीक्षा के बाद आपने जैनागमों का गम्भीर अध्ययन किया और बहुत जल्दी उन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया. अपने गुरु के प्रति आपके हृदय में अगाध श्रद्धा थी. आप स्वयं अत्यन्त कठोर साधक व तपस्वी थे. परिणाम स्वरूप आचार्य श्री रायचन्द्रजी म० की कसौटी पर आप खरे उतरे तथा उनके द्वारा संवत् १८५७ आषाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए. तत्पश्चात् श्रीरायचन्द्रजी म० का स्वर्गवास होने पर सं० १८६८ माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन आपको आचार्य पद प्रदान किया गया. आचार्य रूप में भी १४ वर्ष तक आपने जैन धर्म का प्रचार किया. संयम के अभिलाषी १० श्रेष्ठ व्यक्तियों को मुनिदीक्षा दी तथा जन-जन को अपने असीम ज्ञान का लाभ दिया. ७० वर्ष की उम्र में सं० १८८२ की कार्तिक कृष्णा पंचमी को आपने देह त्याग किया. व्यक्तित्व आपका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावपूर्ण था. अपने सरल स्वभाव के कारण आप सहज ही प्रत्येक को अपनी ओर आकषित कर लेते थे. आपकी अत्यन्त मधुर व सरल ढंग से कही हुई प्रत्येक बात श्रोताओं के मर्म तक सहज ही पहुँच जाती थी. आपमें अति विनयशीलता और गुरुभक्ति थी. बीस विहरमान रचना में कहा है पूज्य जयमल जी प्रसाद थी, थाने सिमरु वारंबारो जी। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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