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________________ KAREMEMMMMMMMMMMMA १४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय रास (६) पाँच पांडव चरित्र (७) कलंकली की ढाल (८) नन्दन मनिहार (8) क्रोध की सज्झाय (१०) आनन्द श्रावक (११) सोलह सती की सज्झाय व चौपई (१२) अजितनाथ स्तवन (१३) दुर्लभ मनुष्य-जन्म की सज्झाय (१४) रावणविभीषण संवाद (१५) इलायचीपुत्र को चौढालियो (१६) नव तत्त्व की ढाल (१७) नव नियाणा की ढाला (१८) दान-शील-तप-भावना सज्झाय (१६) मिथ्या उपदेश निषेध सज्झाय (२०) लघु साधुवन्दना (२१) वज्र पुरन्दर चौढालिया (२२) कुंडरीक-पुंडरीक चौढालिया (२३) सुरपिता का दोहा (२४) रोहिणी (२५) अंबड संन्यासी (२६) कर्मफलपद, आदि. काव्य-रूप और वस्तु व्यञ्जनाः-जैनागमों में वाङ्मय के चार रूप बताये गये हैं - (१) धर्मकथानुयोग (२) चरणकरणानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग. जयमल्लजी ने सबसे अधिक प्रथम अनुयोग पर ही लिखा. यही रूप जन-साधारण के लिए उपयोगी और आकर्षक होता है. इसमें चरित-नायक की कथा गा-गाकर विविध रूपों में कही जाती है. ये एक प्रकार के कथा-काव्य या चरित-काव्य होते हैं. इनके प्रमुख रूप लौकिक छन्दों में रचित रास, रासो, चौपाई, ढाल, चौढालियो, चरित आदि होते हैं. कवि जयमल्लजी ने इन सभी रूपों में तीर्थंकरों, सतियों, बलदेव आदि धार्मिक पुरुषों का आख्यान गाया है. दूसरे रूप चरणानुयोग को अपनाकर उन्होंने अपने सन्त कवि का दायित्व निभाया. इसमें व्यवहार, सदाचार और नीति सम्बन्धी बातों का बोलचाल की भाषा में मामिक वर्णन किया है. इस सम्बन्ध के कई गीत और स्तवन स्तुति-काव्य के रूप में आलोच्य कवि ने लिखे हैं. इन काव्यरूपों में स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, गीत, बीसी, चौबीसी, तीसी, बत्तीसी छत्तीसी, बयालीसी, आदि काव्य-रूप प्रधानतः कवि द्वारा अपनाये गये हैं. द्रव्यानुयोग के रूप में कवि ने कम लिखा है. तात्त्विक सिद्धान्तों का निरूपण स्वतन्त्र रूप में कम कर कथा के मध्य यथाप्रसंग कर दिया गया है. यों दंडक, क्षमा, सम्यक्त्व, क्रोध, पाप, कर्म, मोक्ष आदि पर स्फुट रूप में लिखी हुई रचनाएं मिलती हैं. भाव-व्यअना:-जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सन्त कवि जयमल्लजी की भाव-धारा दो रूपों में विशेषत: बही हैप्रबन्ध और मुक्तक. प्रबन्ध-रूप महाकाव्य की विशदता नहीं ले पाया. वह बन्धकाव्य की तरह भी अपना विकास न कर सका. मात्र कथाकाव्य बनकर रह गया. उसमें इतिवृत्त का अंश अधिक है. मार्मिक स्थलों की पहचान करने की क्षमता कवि में अवश्य है पर कथा कहने की अधीरता उसमें इतनी अधिक है कि वह मार्मिक स्थलों पर बिना विराम किये ही आगे बढ़ जाता है. प्रबन्धकाव्यों की तरह उसने कथा को अध्याय या सर्गों में विभाजित नहीं किया पर ढालों की संख्या देकर इस अभाव की पूर्ति कर दी है. यहाँ जो प्रबन्धकाव्य मिलते हैं उन्हें कथा-काठन कहना अधिक समीचीन होगा. ये कथाएँ आगमसम्मत हैं. इन सबका एक ही उद्देश्य है, वह है निर्वाणप्राप्ति. सांसारिक भोग-विलास से विमुख होकर लोकोत्तर आनन्द के लिए प्रायः सभी पात्र प्रवज्या धारण करते हैं. इन कथाओं में काव्य-शास्त्रीय ढंग की जो कार्यावस्थाएं हैं, उनका क्रमबद्ध स्वरूप देखा जा सकता है. आरम्भ में जो पात्र है. वह राजघराने या कुलीन परिवार से सम्बन्धित है. यों सामान्यत: उसका परिवेश धार्मिक-आध्यात्मिक सौरभ से पूर्ण है. कभी-कभी इससे विपरीत स्थितियां भी देखने को मिलती हैं. उद्देश्य की प्राप्ति (निर्वाण प्राप्ति) के लिए 'प्रयत्न' शुरू होने के रूप में प्रायः किसी न किसी तीर्थंकर या मुनिराज का उस नगरी विशेष में पदार्पण होता है. नायक इन शुभ समाचारों से प्रसन्न होकर राजसी ठाट-बाट के साथ उन्हें वन्दन करने के लिए जाता है. वे (तीर्थकरादि) धर्मोंपदेश देते हैं और पूछने पर नायक के पूर्वभव का आख्यान भी कहते हैं. अपने पूर्व जन्म की कथा सुनकर नायक सांसारिक भयंकर दुखों से संतप्त होकर संयम-धारण करने का संकल्प कर लेता है. इस संकल्प को साकार रूप देने के लिए नायक को संघर्ष करना पड़ता है. यह संघर्ष प्रायः पारिवारिक होता है. कभी माता की ममता' उसे रोकती है तो कभी १. (क) सुबाहु कुमार की माता उसे रोकती है-जयवाणी : पृ० २११-१३ (ख) देवकी गजसुकुमाल को रोकती है-जयवाणी : पृ० ३४०-४१ लालनपालना हOLA LOSS QO769.9 63-TALI 200309 ___Jaikarneshor meme www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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