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________________ नरेन्द्र भानावत : प्रा० जयमल्लजी: व्यक्तित्व-कृतित्व : १४१ HTTERTE: सार' के रूप में 'मोह-मल्ल के प्रबल विजेता' को जो श्रद्धांजलि अर्पित की गई है वह सोलह आना ठीक है ! कालजयी यह शूरवीर अपने आप में अद्भुत था. हाथ में क्षमा-खड्ग और शील-सत्य की बरछी लेकर यह ज्ञान के अश्व पर आरूढ़ था. काव्य-साधना-आचार्य रूप में जयमल्लजी जितने प्रभावक थे, कवि रूप में उतने ही सहृदय भावुक. इनके कवि-व्यक्तित्व में सन्तकवियों का विद्रोह और भक्त-कवियों का समर्पण एक साथ दिखाई पड़ता है. समय की दृष्टि से इनका आविर्भाव रीतिकाल में हुआ. ये हिन्दी के प्रमुख रीतिकालीन कवि पद्माकर के समकालीन थे. यों नागरीदास और चाचा हितवृन्दावनदास भी उसी समय राधा-कृष्ण के चरणों में अपनी भाव-भरी काव्यांजलि समर्पित कर रहे थे. ठाकुर और बीघा जैसे कवि रीतिमुक्त होकर एक ओर प्रेम का सात्विक चित्रण कर रहे थे तो दूसरी ओर कविराय गिरधर जैसे सूक्तिकार भी थे जो नीति की बातों को कुंडलियों में गा-गाकर कह रहे थे. कवि जयमल्ल ने इन सब सूत्रों से अपनी कविता का ताना-बाना बुना. हिन्दी साहित्य के रीतिकाल (सं० १७०० से १९००) की यह प्रमुख विशेषता थी कि संस्कृत में कवि और आचार्यों का जो अलग-अलग वर्ग था वह इस युग में आकर एक हो गया. कवि कर्म का सम्बन्ध केवल काव्य-रचना से था, जब कि आचार्यों का काम केवल काव्यगत सिद्धान्तों का निरूपण करना था. अब रीति-युग में कवि स्वयं आचार्य बन गया. वह पहले कविता के लक्षण आदि बताकर आचार्यधर्म का पालन करता, फिर उसके उदाहरण के रूप में कवि-कर्म की पूर्ति के लिए कविता रचता. परिणामतः काव्यधारा एक निश्चित नियम, रीति या रूढ़ि में बँधकर बहने लगी. हमारे आलोच्य कवि इस प्रकार के तथाकथित 'आचार्य' तो नहीं बने पर उनको 'आचार्य' का विरुद अवश्य मिल गया. यह विरुद उनकी काव्याराधना का प्रतिफल न होकर उनकी धर्मसाधना, संयम-निष्ठा और आगमिक ज्ञान की गंभीरता का परिणाम था. कवि जयमल्लजी रीतिकाल की बँधी बँधाई परिपाटी में नहीं चले. उन्होंने रीतिकाल की उद्दाम वासनात्मक श्रृंगारधारा को भक्तिकाल की प्रशान्त साधनात्मक प्रेम-धारा की ओर मोड़ा. इन्होंने तीर्थंकरों, सतियों, विहरमानों, व्रती श्रावकों आदि को अपना काव्य-विषय बनाया. काव्य-रचना-मुनि 'श्रीमिश्रीमल्लजी' मधुकर 'ने बड़े परिश्रम से इनकी यत्र-तत्र बिखरी हुई रचनाओं का 'जय-वाणी' नाम से संकलन किया है. इस संकलन में आलोच्य कवि की ७१ रचनाएँ संग्रहीत हैं. इन समस्त रचनाओं को विषय की दृष्टि से चार खण्डों में-स्तुति, सज्झाय, उपदेशीपद और चरित, चर्चा-दोहावली में विभक्त किया गया है. उपाध्याय अमर मुनि ने इसकी चर्चा करते हुए लिखा है--स्तुतिखण्ड में उन्होंने अपने आराध्य देवों के संस्तवन में अपनी भक्तिभाव-भरित अनेकशः श्रद्धाञ्जलियां गुम्फित की हैं. 'सज्झाय' खण्ड में आत्म-स्वातन्त्र्य के मार्ग को प्रशस्त करने वाले अनेक गहन चिन्तनों को काव्यमयी भाषा में लिपिबद्ध किया गया है. इसी प्रकार 'उपदेशी पद' नामक खण्ड में अनेक आत्म-विकासी एवं मानवीय नैतिक धरातल को समुन्नत करने वाले उपदेश सहज-सुबोध शैली में प्रथित किये हैं. अन्तिम खण्ड में जिन महान् आत्माओं के पावन चरितों को काव्यमृत से सिंचित एवं भावित किया गया है, उनके जीवन्त चित्र आत्मा को असत् से सत् की ओर, तम से ज्योति की ओर एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं. इसी भांति इस खण्ड की चर्चा एवं दोहावली भी जीवन के अनेक उत्कर्ष-विधायक तत्त्वों से आपूर्ण है'. इन रचनाओं के अतिरिक्त भी आचार्यश्री की और कई रचनाएं हस्तलिखित प्रतियों में बिखरी पड़ी हैं. खोज करते समय जो अतिरिक्त रचनाएं हमारी दृष्टि में आई हैं उनके नाम इस प्रकार हैं(१) चन्दन बाला की सज्झाय (२) मृगालोढ़ा की कथा (३) श्रीमतीनी ढाल (४) मल्लीनाथचरित (५) अञ्जनानो १. गुणगीतिका-पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, पृ० ३ २. जयवाणो : पृ० ६ ('कवि और कविता' एक मूल्याकंन). ३. ये सभी रचनाएं आचार्य विनयचन्द्र ज्ञान-भंडार, जयपुर में संग्रहीत है. JainEducE wwittainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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