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________________ विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ: १११ लगे तो थैला भूल गए. उन्होंने आगे चले मुनियों को थैला उठाने को नहीं बुलाया और स्वयं ही अपने स्कंध पर धारण कर लिया. दो-तीन माइल के करीब आगे चलने पर उन्हें अपना थैला याद आया. पीछे लौटने लगे तो उन्होंने कहा"तुम्हारा थैला मेरे पास है, चले चलो." बात साधारण-सी लगती है परन्तु इस घटना ने काफी प्रभावित किया. यह घटना याद आती है तो उनके प्रति श्रद्धा, स्नेह और भक्ति उमड़ आती है. वे मुनिसंघ के नियंता थे. चाहते तो किसी भी मुनि को कह सकते थे. उनके कहे से कौन मुकर सकता था ? किन्तु उन्होंने वैसा न कर स्वयं ही थैले का भार वहन कर लिया. उस समय मैंने अनुभव किया श्रद्धय गुरुवर कितने उदार, स्नेहशील और करुणा से ओतप्रोत हैं ! मुनि श्रीमिश्रीमलजी 'मुमुक्षु' HER389939889EE38383838388906 करुणामूर्ति महामना मुनि श्रीहजारीमलजी ! संत भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। उस दिव्य पुरुष ने राजस्थान के रजकणों को पावन करते हुए इस सत्य को साक्षात् कर दिखाया था. उनका हृदय किसलय-सा कोमल था. सारे वृक्ष में अनुभूतिशील या कवि-हृदयों को अपनी ओर खींचती हैं तो वह वृक्ष की कोमल पंखुरियाँ. सन्तमना मुनि श्रीहजारीमलजी म. में सर्वाधिक आकर्षण का कोई केन्द्रस्थल था तो वह उनका पीड़ितों के प्रति अर्पित करुणाशील मन ! उनके जीवन को मैंने पढ़ा तो मन श्रद्धावनत हो गया. उनके जीवन से मुझे यह अनुभव हुआ कि वे तन और मन दोनों से सन्त थे. इसलिये यह कहने में मुझे प्रसन्नता है कि सन्त भारतीय संस्कृति के प्राण हैं. और वे उन प्राणों में से एक थे. वे चोला बदल कर साधु कहलाने वालों में से नहीं थे. वे मन से भी पूर्ण साधु थे. आज मेरा मन उनके प्रति भावांजलि अर्पित करते हुए हृदय के इस भाव को प्रकट करने के लिए विवश है कि वे सन्तमना ही नहीं महामना भी थे. उस महामना के प्रति मेरी श्रद्धा, उनके दिव्यलोक तक पहुँचे और वे मुझ अकिंचन के भावों को पहचान सकें. आज मैं यही सोचकर यहीं पर रुक रहा हूँ कि उनको श्रद्धार्पण करने के अधिकारी हम तभी हैं जब स्वयं भी प्रमाद तज उनके चरण-चिह्नों पर चलें. अंत में यही भाव उभर कर आ रहा है कि कैसे करूँ अर्पित श्रद्धा-सुमन तुम्हें मेरे ? मुनि श्रीनन्दीषेणविजयजी 'विश्वबन्धु' चारित्रिक ऊर्जा के धनी मैंने पूज्य स्वामीजी महाराज के दर्शन, अपनी वासंती वय में किये. हृदय में एक परम पुरुष का चित्र अंकित हुआ ! मैंने वीरपथिक बनकर दोबारा दर्शन किये ! पिता का-सा वात्सल्य और प्रेम मिला. मेरे अन्दर के बुद्धिवादी मुनि ने उनके स्नेह कृपा और वात्सल्य को परखा. परखते-परखते ही मेरा अन्तर मानस झुक गया-उनके चरणों में. मैं उन्हें साधना का प्रेरक सेतु मानने लगा. लोकैषणाओं के झंझावातों से बच निकलने वाला उनका प्रेरक सन्देश तूफान में फंसी नौका का संबल है-"बड़े बनने का प्रदर्शन मत करो ! अन्यथा असम्मान, घृणा और आलोचना की तीखी लोह-कीलें तुम्हारे हृदय को छेद देंगी. बड़ा Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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