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________________ प्रधान सम्पादक का निवेदन प्रथम वार आदरणीय श्रीमधुकर मुनि ने जब स्मृतिग्रंथ को प्रकाशित करने और उसका दायित्व मुझे सौंपने का विचार व्यक्त किया, तब उसे मैंने कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया. उस समय भी मैं अपने परिमित सामर्थ्य को जानता था, फिर भी मेरी स्वीकृति के पीछे अनेक हेतु थे. मुनिजी के कथन से यह स्पष्ट था कि मेरी अस्वीकृति का अर्थ होगा-ग्रंथ-प्रकाशन के विचार को सदा के लिए त्याग देना. मेरे प्रति उनके इस विश्वास ने मुझे नतमस्तक कर दिया. इसके अतिरिक्त स्मृतिग्रंथ के माध्यम से अगर मेरी साहित्यसाधना किंचित् अग्रसर होती है तो फिर और चाहिए ही क्या ! किन्तु सब से बड़ा आकर्षण था स्वर्गीय स्वामीजी के प्रति मेरे अन्तस्तल में विद्यमान श्रद्धा और भक्ति. दीर्घकाल पर्यन्त मैं उनके पावन सम्पर्क में रहा हूँ. वे अपने युग के आदर्श सन्त थे. सन्त-जीवन की समग्र विभूतियाँ जैसे उनमें केन्द्रित हो गई थीं. शिशु का सारल्य, माता का कारुण्य, योगी की असम्पृक्तता उनमें ओतप्रोत थी. हृदय नवनीत-सा मृदु, वाणी में सुधा की मधुरता और व्यवहार में अनायास ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेने वाला जादू ! आत्मनिष्ठा के साथ अशेषनिष्ठा का निर्वाह करनेवाला वह योगी सचमुच अनेकान्त का मूर्तिमान् उदाहरण था. उस महान् आत्मा के प्रति श्रद्धानिवेदन के इस अवसर को चूक जाना मैं नहीं चाहता था. प्रारंभ में यह कल्पना नहीं थी कि ग्रंथ इतना विराट रूप धारण कर लेगा. पाँच-छह सौ पृष्ठों तक का ही प्रकाशन उस समय सोचा गया था. किन्तु जब कार्य प्रारंभ हुआ और सुविज्ञ साहित्यकारों से सामग्री की मांग की गई तो उन्होंने बड़ी उदारता के साथ सहयोग दिया. फलस्वरूप ग्रंथ का जो विस्तार हो गया है, वह आपके सामने है. प्रारंभ से ही हमारी नीति मौलिक--अन्यत्र अप्रकाशित रचनाओं को ही इस ग्रंथ में स्थान देने की रही है. तदनुसार जो रचनाएँ हमें प्राप्त हुई और फिर अन्य पत्रों में मुद्रित देखी गईं या जानकारी में आईं, उन्हें कम कर दिया है. अगर अनजान में कोई ऐसी रचना छपी हो तो उसका उत्तरदायित्व उसके लेखक पर है. जिनका प्रतिपाद्य अन्य रचनाओं में गभित हो गया है, ऐसी भी कतिपय रचनाएँ कम कर देनी पड़ी हैं. प्राप्त सब रचनाओं को स्थान दिया जाता तो ग्रंथ के चार-पांच सौ पृष्ठ और बढ़ जाते. किन्तु अर्थराशि की परिमितता और ग्रंथ के विस्तार को देखते हुए कमी करना अनिवार्य हो गया. इन दोनों कारणों के अतिरिक्त तीसरा कारण समयाभाव भी था. ग्रंथ के मुद्रण में समय बहुत लग गया और इससे अधिक समय लगाना समिति को सह्य नहीं था. इस बीच लेखकों और पाठकों के अनेक तकाज़े हमें सहन करने पड़े हैं. आशा है ग्रंथ के प्रकाशित होते ही प्रेमी पाठक और लेखक सन्तोष अनुभव करेंगे. जिन विद्वान् लेखकों की रचनाएँ हम नहीं प्रकाशित कर पाये, उनके प्रति विनम्रभाव से क्षमाप्रार्थी हैं. कुछ रचनाओं का संक्षिप्तीकरण भी करना पड़ा है. यह भी हमारी विवशता ही समझिए. ग्रंथ पाँच अध्यायों में विभक्त है. प्रथम अध्याय में स्वामीजी का संक्षिप्त जीवन परिचय, उनसे सम्बन्ध रखने वाले संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ हैं. अन्त में स्थानकवासी जैन परम्परा एवं लौंकागच्छ के साहित्य और साहित्यकारों का परिचय आदि है. दूसरे अध्याय में धर्म और दर्शन संबंधी रचनाएँ हैं. तीसरे में इतिहास, पुरातत्त्व, समाज और संस्कृति आदि विषयों संबंधी और चौथे अध्याय में साहित्य संबंधी सामग्री निबद्ध की गई है. पाँचवाँ अध्याय अंगरेजी भाषा में लिखित प्रायः जैनधर्म संबंधी रचनाओं के लिए है. Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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