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________________ विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ: १०६ का आधार है. "यश से नहीं व्यक्ति कर्म से अमर रहता है" इस कथन के ध्रुवाधार पर कह सकती हूँ, वे अमर हैं और अमर ही रहेंगे. साध्वी श्रीयशकुंवरजी WWWWINNERIKMEREKKRMEMEMENTRENEW समर्पित हैं श्रद्धा-सुमन मेरे इस धराधाम पर जब भास्करदेव अवतरित होते हैं तो प्रकृतिश्री मुस्कुरा उठती है. चम्पा की सलौनी टहनी पर जब सुमन लिखते हैं तो समन वातावरण सुवासित हो उठता है. आकाश में बादलों की जब बारात सजती है तो काले कजरारे मेघ नृत्य करने लगते हैं, गर्जना करते हैं. तो मनमौजी मयूर भी नृत्य करने लगते हैं. वसंत के शुभागमन पर आम्रमंजरी लहराने लगती है. कोकिला स्वयमेव ही पंचम स्वर में मधुर राग आलापने लगती है. रजनी के प्रिततम नभनंडल में उदित होते हैं तो अन्धकार विलुप्त हो जाता है. इसी प्रकार जब कोई असाधारण, दिव्य भव्य विभूति का अवनीतल पर अवतरण होता है तो परिवार, समाज, राष्ट्र और यहाँ तक कि समग्र विश्व भी प्रफुल्लित हो उठता है. परम श्रद्धेय स्व० पूज्य गुरुदेव श्रीहजारीमलजी महाराज भी एक ऐसे प्रतिभासम्पन्न विभूति थे. वे सचमुच हजारों में से एक थे. उनमें चरित्रनिष्ठा, व्रतों की दृढता, मानस की कोमलता, भावों की भव्यता और साथ ही उनके जीवनव्यवहार को प्रत्येक क्रिया में आर्द्रता भी थी. उनके सद्गुणों से परिपूर्ण जीवन के लिये तो मेरे मुख से कवि की ये पंक्तियां बरवश ही प्रस्फुटित होती हैं अधरं मधुरं, वदनं मधुरं, नयनं मधुरं, हसितं मधुरं, हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ! वचनं मधुरं, चरितं मधुरं, वसनं मधुरं, बलितं मधुरं, चलितं मधुरं, भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् !! ठीक इसी प्रकार स्वामीजी म० का सब कुछ मधुर था. 'अधरं मधुरं' उनके होठ मधुर थे. क्योंकि सत्य वचनों का उच्चारण करने के लिये ही वे खुलते थे. 'वदनं मधुरं' उनका सारा शरीर ही मधुरता से ओतप्रोत था. उनका चेहरा इतना मधुर और रसिक था कि देखने वाले को आत्मतृप्ति की अनुभूति होती थी. इतना अद्भुत सौंदर्य उनमें लहराता था. 'नयनं मधुरं' उनके नेत्रकमलों से करुणावर्षा सतत हुआ करती थी. कमल-से कलात्मक नयनों में अज्ञेय गहराई थी. उनकी विशाल पलकें परदुख से जब बोझिल बन जाती तो नयनों से करुणा-बिन्दु टपक पड़ते. 'हसितं मधुरं' अपनी साधना में, आत्मज्ञान में आत्मरमणता में अहर्निश मुस्कुराहट अठखेलियाँ करती थीं. 'हृदयं मधुरं' उनका हृदय नवनीतसा सुकोमल और शर्करा-सा मधुर था. उनके हृदय में करुणा मैत्री और दया के भाव परिव्याप्त थे. इसीलिये वे सरलता के संगम थे. 'गमनं मधुरं' पतितों के उद्धार के लिये ही वे गमन करते थे. ईर्यासमिति के पूर्णरूपेण पालन पर उनका अत्यधिक ध्यान था. 'मधुराधिपतेरखिलं मधुरं' इस प्रकार उन मधुराधिपति का सब कुछ मधुमय था. फिर 'वचनमधुरं' उनके वचनों में चातुर्य, माधुर्य, औदार्य, विवेक और साथ ही साथ दिव्य एवं भव्य जीवनसत्य था. उनके चेतनामय वचन मुर्भाये हुए मानव-फूलों को नवचेतन एवं नवस्फुरण प्रदान करते थे. दुख-दुविधा से जिनका जीवन पत्र रहित वृक्ष-सा बन गया हो उसे वे अपने आर्द्रतापूर्ण वचनरूपी वर्षा से पुनः पल्लवित कर देते थे. उनकी वाणी में एक अलौकिक प्रकार का जादू था जो सुनने वाले के समग्र जीवन को आलोकित कर देता था. उनकी वाणी के पीछे विलास नहीं विचार था. विचारों के पीछे हृदय की शून्यता नहीं मगर भावभीनी भावना थी. वाणी में जिन्दगी के अनुपम लालित्य के दर्शन होते थे. उन्होंने वक्तृत्वकला की महान् साधना नहीं की थी किन्तु उनके सहज जीवन से ही वह निर्मित हुई थी. 'चरितं मधुरं' उनका सम्यक्चारित्र सचमुच महान् और मधुर था. वे अपने चरित्र की चमक लिए जहाँ भी जाते थे वहाँ अपनी आत्मसुवास से सारे वातावरण को सौरभान्वित कर देते थे. 'वसनं मधुरं'-उनका वसना भी मधुर था. जब आत्मज्ञानधारी वे संत अपनी आत्ममस्ती में बैठते तो ऐसा लगता मानो भव्य विभूति प्रभु से साक्षात्कार कर रही हो. सुदृढ़ सुस्थिर, सुसमाधिमय बैठने का उनका अपना निराला तरीका था. उनके वसन अर्थात् Sad Jain adies jaimentary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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