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१०८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
XAMMAMAKRAMERARAN
इससे उनका जीवन अतिशय भव्य और दिव्य था. उन पुण्यश्लोक शान्त भद्रपरिणामी मन्त्री मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज के चरणों में अपनी श्रद्धांजलि समर्पित कर धन्यता का अनुभव करती हूँ.
श्रीसुमतिकुंवरजी आर्या
मेरे श्रद्धाप्रसून यह सही है कि स्व० महाराजश्री का कार्यक्षेत्र अधिकतर राजस्थान ही रहा परन्तु इससे उनके चारित्र्य में, संगठन और अनुशासन की अनुभूति अधिक प्रखर हो उठी, और उल्लेखनीय यह है कि श्रमण-संगठन की आवश्यकता और अनुशासन की कठोरता के पक्के हिमायती होने के बावजूद भी, वे अत्यन्त संवेदनशील और भावनाप्रधान थे. मेड़ता में पिछले दर्शन, मेरे लिये अन्तिम ही सिद्ध हुए. आज स्मृति टटोलता हूँ तो लगता है-मेड़ता में वे कितने भाव-प्रवण और श्रावकों के अनुराग से अभिभूत थे. श्रीस्वामीजी की साहित्यरुचि और जैन आगमों के प्रति एकान्त-निष्ठा केवल औपचारिक न थी, वे चाहते थे कि जैन साहित्य का अधिकाधिक प्रचार और प्रसार हो और गूढ़ तथा अप्राप्य ग्रन्थों को पूरे विश्लेषण और अनुसंधान का अवसर मिले. आशा है हमारा समाज उनकी इन भावनाओं को क्रियात्मक रूप देने में पीछे न रहेगा. स्व० महाराजश्री के सुयोग्य अंतेवासी पं० र० मुनि श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' में हम मुनिवर के सारे गुण पा रहे हैं और स्वाभाविक ही इसका श्रेय अन्ततः स्व. श्री १००८ श्रीहजारीमलजी म. को है. और उनकी पुण्यस्मृति में इससे अच्छी श्रद्धांजलि और क्या होगी यदि हम सभी उन्हीं के बताये मार्ग पर केवल कहने और बोलने के बजाय-सचमुच में चलना शुरू कर दें.
श्रीजवाहरलालजी मुणोत
श्रद्धांजलि पूज्य मुनिराज श्रीहजारीमलजी म. के प्रेरक उपदेश का ही सुफल है कि मैं सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में प्रवेश पा सका. उनके उपदेशों ने मेरे हृदय में जनसेवा के भावों के अंकुर उत्पन्न किये. स्थानीय जैन समाज में गति लाने के लिये श्रावकसंघ की स्थापना करवाई. सेवक के नाते उसमें मेरा भी उल्लेख हुआ. उनका सं० २००६ का वर्षावास विजयनगर में था. मेरा वह वर्ष उनके अधिक सम्पर्क में आने का था. उसने मेरे जीवन को एक नई दिशा दी. उनको अनेक बार अनेक प्रसंगों पर मैंने देखा कि वे दया और करुणा की साकार प्रतिमा हैं.
श्रीकन्हैयालालजी भटेवडा, विजयनगर
अर्पित है श्रद्धा मेरी मनुष्य का जीवन अध्रुव और अशाश्वत है. वह जिस क्षण जन्म लेता है उसी क्षण मृत्यु की ओर यात्रा प्रारम्भ हो जाती है. जन्म और मृत्यु एक मुद्रा के दो पहलू हैं. यह सब होते हुए भी एक अलौकिक ज्योति मानव के सम्मुख है. मृत्यु शरीर को हानि पहुँचाती है. आत्मा इस खतरे से मुक्त है. जन्म मरण के विवर्त से सन्त भी व्यतीत होता है. परन्तु वह अपने आदर्श, त्याग, तपोमय जीवन के कारण मर कर भी अमर है. स्वर्गीय शास्त्रस्थविर श्रीहजारीमलजी महाराज हमारे सम्मुख नहीं हैं किन्तु उनके आदर्श और कार्य हमारे लिए प्रेरणा