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________________ १०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय स्मरणाञ्जलि हमारा देश आर्यावर्त्त, आज भौतिक साधनों में, सैनिक बल में, आर्थिक समृद्धि में तथा जड़ विज्ञान में विश्व के अनेक देशों से कितना ही पिछड़ा हुआ क्यों न हो, फिर भी वह एक ऐसी समृद्धि का धनी है जिसके कारण समग्र जगत् के विचारशील विद्वान् उसका आदर करते हैं. उस समृद्धि की बदौलत आज भी उसका स्थान सर्वोपरि है और उसके कारण हम महान् गौरव की अनुभूति करते हैं. वह समृद्धि हमारी आध्यात्मिक संस्कृति है. अन्ततः भौतिकवाद से त्रस्त जगत को किसी समय वही शान्ति पहुँचाएगी, यह हमारा सुनिश्चित विश्वास है. अतएव हमें इसे सजीव और स्फूर्त बनाये रखना है. हम यह भूल नहीं सकते कि यह पुनीत संस्कृति भारत के ऋषियों की तपस्या और अनुभूति की ही देन है और उन्हीं की कृपा से यह आज भी जीवित है. स्व० मुनि श्रीहजारीमलजी म. ने इस संस्कृति को जीवित रखने और फ़ैलाने में जो महत्त्वपूर्ण योग दिया है उसके लिए वे सदैव अभिनन्दनीय, अभिवन्दनीय और स्मरणीय हैं. उनकी आत्मा हमारी इस स्मरणांजलि को स्वीकृत करे. श्री सुज्ञानचन्द्र भारिल्ल, एडवोकेट मेरा युग-युग तक हो वन्दन ! अहर्निश साधना की अखण्ड-ज्योति प्रज्वलित रखकर साधना के चरम सत्य को प्राप्त करने वाले पूज्य मंत्री मुनिराज श्रीहजारीमलजी म० के दर्शन कर मैं धन्य-धन्य हुई थी. वह दिन याद आ रहा है. वह समय था सं० २०१२ भीनासर सम्मेलन का. पूज्या साध्वी श्रीउमरावकुंवरजी के श्रीमुख से-जब आपका जम्मू आगमन हुआ था-परमश्रद्धय गुरुदेवश्री की स्वभावगत विशेषताओं का वर्णन सुनते-सुनते मैं श्रद्धाभिभूत हो भक्तिनत हो गई थी. उनके भीनासर में दर्शन कर मैंने यह अनुभव किया था-"आज मेरे अखण्ड सौभाग्य का दिन है. जिस परम पुनीत आत्मा के दर्शन कर रही हूँ इनके जीवन में मधुरता, दृष्टि में वात्सल्य-भाव और तेज है. इनके जीनन में विवेक की संजीदगी है. वृद्ध होते हुए भी स्वतः ही अपना कार्य कर रहे हैं. कार्य कर चुकने पर भी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं. सेवा इनके जीवन की बड़ी विशेषता है." इन सब विशेषताओं के कारण ही वे जन-जन के मन में बस गए. जन-जन की जिह्वा पर बस गए. मेरा यह दुर्भाग्य ही रहा कि मैं पुनः उनके दर्शन न कर सकी. भीनासर के दर्शन ही मेरे प्रथम और अन्तिम दर्शन सिद्ध हुए. परन्तु मेरे हृदय के कण-कण में आज भी यही अन्तरध्वनि गूंज रही है "उस सन्त पुरुष के चरणों में हो, मेरा युग-युग तक अभिवादन !" श्री कलावती जैन मेरी श्रद्धा के आधार विश्वांगण में मनुष्य स्वयं अनुभव प्राप्त कर अपने जीवन की पुस्तक के पृष्ठों पर आचरण की मसि से अनुभव का अमृतानुभवांकन करना चाहता है. यह प्रयास अत्यन्त पवित्र है. विकासोन्मुख व्यक्ति बंधी-बंधाई व सुनी-सुनाई बातों पर, पलकें मूंदकर चलना स्वीकार नहीं करता है. यह मेरी समझ में प्रगति का प्रतीक है. UIDATE Jain education memang magainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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