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________________ ८६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृतिग्रन्थ : प्रथम अध्याय कि 'संघे शक्तिः कलौ युगे.' श्रमण संघ के अत्यन्त आग्रह पर स्वामी जी ने मरुधर प्रान्त के मन्त्री बनने की स्वीकृति दी. स्वामीजी प्रिय भाषी, दूरदर्शी व गुणवत होने से अपने इस पद का निर्वाह करने में पूर्णत: सक्षम थे. प्रगतिशील विचारों का स्वामीजी ने सदा स्वागत किया और उनको समर्थन दिया. स्वामीजी के गुणों का कहाँ तक वर्णन किया जाय वे इतने अधिक हैं कि इस लेख के कलेवर में उनका सांकेतिक उल्लेख भी संभव नहीं है. उनके विराट् जीवन में गम्भीरता, सरलता, मर्मज्ञता, नीतिमत्ता, वत्सलता, सहिष्णुता, आध्यात्मिकता, समता आदि गुण इस तरह से व्याप्त थे जैसे तिलों में तेल व्याप्त हो. अपने जीवन काल में उन्होंने केवल अपना ही कल्याण नहीं किया किन्तु अनेक प्राणियों को सत्पथ पर आगे बढ़ाया और सम्पूर्ण विश्व के कल्याण में निरत रहे. उनका भौतिक शरीर पृथ्वी की गोद में अवश्य समा गया और समाज में एक अभाव की खटक पैदा कर गया किन्तु यश: शरीर उनका आज भी कायम है और युग-युगों तक उनके जीवन की उपासना और धर्म-प्रचार संसार के भूले-भटके लोगों को सत्धर्मका प्रकाश देकर सत्पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहेगा. मुनि श्रीसमदर्शीजी एक मधुर स्मृति सरलता का महत्त्व सरलता–साधना का प्राण है. श्रमण-साधना तो क्या, मानवता की ज्योति को प्रज्वलित करने के लिए भी जीवन में सरलता का होना आवश्यक है. आगम में मानव बनने के जो चार कारण बताए हैं, उनमें सर्व प्रथम है--"पगइभद्दयाए" अर्थात प्रकृति की भद्रता, सरलता--साधनाओं का मुल है. सरलता की साकार मूर्ति श्रद्धेय मंत्री मुनि श्रीहजारीमलजी महाराज, जिनकी मधुर संस्मृति ही आज हमारे पास है--जिनका अभाव मन को पीड़ा से भर देता है. वे सरलता, सौम्यता एवं निष्कपटता की साकार मूर्ति थे. उनके जीवन में वह कला थी, जो मिलने वाले व्यक्ति को सहज ही अपनी ओर खींच लेती थी, दूसरे को अपना बना लेती थी. वह कला-मन, वचन , वाणी की एकरूपता थी. जो उनके मन में था, वह वाणी में और जो वचन में था, वही कर्म में. जीवन की यह एकरूपता अति दुर्लभ है, परन्तु श्रद्धेय मंत्रीजी महाराज के जीवन में वह स्वभावतः थी. उनके पावन-पुनीत जीवन का यह पहलू स्पृहणीय है. सचमुच वे सरलता के प्रकाश-पुंज थे. उनके कण-कण में स्नेहशीलता एवं निश्छल प्रेम की धारा प्रवहमान थी. ज्ञान और कर्म योगी ज्ञान-पिपासा उनके जीवन की एक महान् साध थी. जीवन के अरुणोदय से लेकर जीवन की संध्या तक वे अनवरत ज्ञान-पिपासा को शान्त करने में तन्मय रहते थे. जब देखो तभी स्वाध्याय एवं संयम क्रिया में व्यस्त मिलते थे. निष्क्रिय होकर बैठना उन्हें पसन्द नहीं था. अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर अवकाश के समय वे शास्त्रों की गाथाएँ एवं भक्ति रस के तथा उपदेशप्रद भजन कण्ठस्थ करने में लग जाते थे. उन्हें दस-बीस नहीं, सैकड़ों हजारों भजन, पद, एवं दोहे कंठस्थ थे. EEEEEEE Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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