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________________ HERSHWHENEVERENERRENMMMMER ७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय मंत्री श्रीहजारीमलजी म. के दिल में अंतर नहीं था. जहाँ सच्चा और स्थायी प्रेम होता है उसमें भौगोलिक अंतर बाधक नहीं होता है. यही कारण है कि मंत्री श्रीहजारीमल जी महाराज समय-समय पर पत्रों द्वारा मेरी सार-सँभाल अपने जीवन के अन्त तक लेते रहे हैं. हृदय का प्रेम एक बार जिसके प्रति उमड़ा कि उमड़ा. जब वह कोई पथ नहीं पाता तो पत्र के माध्यम से प्रेमपात्र के पास पहुँचता है. मंत्री श्रीहजारीमल जी महाराज का सहवास भले ही अल्प मिला, परन्तु उनका विशाल प्रेम प्राप्त हुआ है. उस प्रेममूति संयमधन, महास्थविर के प्रति आज भी मैं श्रद्धान्वित हूँ. मुनि श्रीकन्हैयालाल जी 'कमल' म्यायतीर्थ वे क्या थे? एक अवलोकन स्वर्गीय स्वामी श्रीहजारीमल जी महाराज के सान्निध्य में रहने का मुझे सर्वप्रथम शैशवकाल में सौभाग्य प्राप्त हुआ था. उस समय मैं, अपने गुरुदेव के श्रीचरणों में शिक्षा प्राप्त कर रहा था. मैंने प्रथम बार में ही उनमें सहज वात्सल्य भावकी झलक पाकर अपना सुकोमल हृदय उन्हें समर्पित कर दिया था. तभी से मैं स्वामीजी महाराज का हो गया था और स्वामी जी महाराज मेरे अपने हो गये थे. उन महामुनि ने मेरे गुरुदेव से विचारविमर्श करके मेरे अध्ययन की व्यवस्थित रूपरेखा बनाकर मुझे ज्ञानालोक की राह दिखलाई थी. अध्ययन का फल यद्यपि योग्यता है, पर अध्ययन की गहराई का अंकन परीक्षा के मापदण्ड से होता है. परीक्षा के भय से भी अध्ययन में मन लगाने वाले कुछ विद्यार्थी होते हैं. इस अपेक्षा को लेकर स्वामी जी महाराज परीक्षाप्रणाली के समर्थक थे. उनकी भावना प्रेरणा से अनेक मुनियों ने कलकत्ता और वाराणसी की परीक्षाएँ दी थीं. राजस्थानी मुनियों का यह प्रथम प्रयास था. मैं भी उनमें से एक था. उस समय एक वर्ग-विशेष ने इस परीक्षा-पद्धति का कठोरतम विरोध भी किया. स्वामी जी म. ने उस थोथे विरोध की परवाह नहीं की और हमें अध्ययन के प्रति निष्ठावान् बनाया. हमारे अध्ययन का क्रम ठीक तरह चलता रहे, इस दृष्टि से पं० बेचरदास जी दोशी बुलाये गये. प्राकृत भाषा और जैनागमों का अध्ययन हम दोनों ने प्रारम्भ किया. आज हम जो कुछ बन पाये हैं, यह उन्हीं महामनीषी सन्त की कृपा का प्रसाद है. राजस्थान के स्थानकवासी समाज में हमारी इस प्रकार की अध्ययन-प्रणाली को लेकर काफी उखाड़-पछाड़ के प्रयत्न हुए पर वे सब स्वामी जी म० की दृढ़ता से अस्थानीय ही सिद्ध हुए. हमारी विद्याध्ययन की रुचि अधिकाधिक अग्रगामी हुई. उनका विरोध हमारे लिए वरदान साबित हुआ. यद्यपि स्वामी जी म० अत्यन्त विनम्र व अनाग्रही थे परन्तु अपने प्रगतिशील विचारों के प्रति अत्यधिक आग्रहशील भी थे. अच्छे-अच्छे धनपति भी अनुचित दबाव डाल कर उनको अपने विचारों से नहीं डिगा सकते थे. एक संस्कृत कवि की यह उक्ति उनके प्रति यथार्थ चरितार्थ हो रही है वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि , __ लोकोत्तराणां चेतांसि, को हि विज्ञातुमहर्ति ! वे श्रत, वय और दीक्षा स्थविर होते हुए भी पारस्परिक व्यवहार में अत्यधिक उदार विचार रखते थे. आगन्तुक सन्त चाहे दीक्षा में कितने ही छोटे क्यों न हों, वे उनके स्वागत के लिए बहुत लम्बी दूर चले जाते थे. लघुत्व भाव की १. मुनि श्रीमधुकरजी और लेखक. (CG Jain ducation Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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