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________________ चन्द्रप्रभस्वामी का यह मंदिर महत्वपूर्ण है-उसमें प्रभूत अलंकरण व कारीगरी विद्यमान है। उसकी छत (वितान) भी समलंत है । संरचना की दृष्टि से यह मंदिर सुप्रसिद्ध राणकपुर के चौमुखा मंदिर का लघु-प्रतिति प्रतीत होता है। गर्भगृह के द्वारखण्ड पर देवी प्रतिमाएं बनी हैं जिनके निर्माता कलाकार सूत्रधार लषाधीरा तथा परबत सूरा थे । अर्द्धमंडप की स्थानक शिव तथा नर्तन करती रमणी का निर्माता सूरा तथा स्थानक चतुर्बाहु कुबेर प्रतिमा का कलाकार धीरा थे । ये निश्चयतः जैसलमेर के प्रमुख शिल्पी रहे होंगे । ऋषभदेव के मंदिर का निर्माण गणधर चोपडा गोत्रीय सा. सच्चा के पुत्र धन्ना ने महारावल देवीदास के राजत्व में वि.सं. १५३६ में कराया। इस मंदिर के वाह्य वेदीबंध पर आसनस्थ पार्वती की मूर्ति बनी है जिसे सूत्रधार लक्ष्मण ने बनाया था। इस मंदिर में धातुप्रतिमाओं का भी विशाल संग्रह है जो ११ वी से १६ वीं शताब्दी की हैं। इस मंदिर के चौभूमिये के तोरण पर वि. सं. १५३६ का लेख है जिसका सूत्रधार देवदास (नाहटा-बीकानेर लेख संग्रह, लेखांक २७३८, पृ. ३८८) था। महावीर स्वामी का मंदिर ओसवाल-वंश के वरडिया गोत्रीय सा. दीपा द्वारा वि. सं. १४७३ में निर्मित कराया गया। यह मंदिर साधारण एवं सादगी लिए कराई जो आज भी विद्यमान है। प्रशस्ति में इस मन्दिर को 'उतांग तारण जैन प्रासाद' तथा 'बिभूमिक अष्टापद महातीर्थ प्रासाद' कहा गया है । लेख में विष्णु के दशावतार सहित लक्ष्मीनारायण की मूर्ति निर्मित होने का भी उल्लेख है। हिन्दू विग्रह की मूर्ति की जैन मंदिर में स्थापना-धार्मिक सहिष्णुता का अन्यतम उदाहरण है। यह सफेद संगमरमर में बनी मूर्ति मंदिर के प्रांगण में आज भी विद्यमान है। इसमें प्रधान मूर्ति के रूप में लक्ष्मीनारायण का अंकन है तथा निचले भाग में वराह व नृसिंह अवतार अंकित है। ऊपरी संभाग में दाएं कोने में खड्गधारी व अश्वारोही अचुप्ता देवी तथा बाएं कोने में आसनस्थ तीर्थंकर बने हैं। कुंथुनाथजी के मंदिर के बाह्य मंडोवर पर जो विभिन्न मुद्राओं में सुन्दर मदनिकाएं (कंदुक क्रीड़ा, सिंह युद्धरत आदि) उत्कीर्ण हैं-उनका कलाकार सूत्रधार भोजा है। शान्तिनाथ मंदिर के विभिन्न मंडपों के वितान एवं संवरणा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आदिनाथ मंदिर का निर्माण भी शांतिनाथ मंदिर के साथ उसी वर्ष में हुआ। जैसलमेर शहर में भी अनेक जैन मंदिर, देरासर, उपासरे व ग्रंथ भण्डार हैं परन्तु शहर से लगभग ६ किलोमीटर दूरस्थ एवं अमर सागर पर स्थित तीन जैन मंदिर-यद्यपि अधिक पुराने नहीं हैं परन्तु अपनी उत्कृष्ट कला के कारण वे निस्संदेह विशाल मरुभूमि में शिल्प' की अनुपम निधियां हैं । इन तीनों मंदिरों में मूलनायक के रूप में आदीश्वर भगवान प्रतिष्ठित हैं और ये मन्दिर १९ वीं शताब्दी के परिष्कृत मंदिर-स्थापत्य कला के उल्लेखनीय उदाहरण हैं । एक मन्दिर पंचायत द्वारा वि. सं. १९०३ में महारावल रणजीतसिंह के समय बना । अन्य दो मंदिरों के निर्माण का श्रेय जैसलमेर के सुविख्यात बापना जाति के सेठों को है जिनकी पटवों की हवेलियां अपने जाली व झरोखों के लिए प्रसिद्ध हैं। छोटा मंदिर बापना सवाईराम ने वि. सं. १८७० में तथा बड़ा मंदिर बापना हिम्मतराम ने वि. सं. १९२९ में निर्मित कराया। इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य जिनमहेन्द्र सूरि ने की। छज्जों और गवाक्षों की कारीगरी की छटा अनुपम है तथा मंदिर में जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत करने वाली मूर्तियां १९ वीं शताब्दी की राजस्थानी शिल्पकला की अन्यतम निधियां हैं जो जैसलमेर की कलात्मक समृद्धि की निदर्शक हैं। जैसलमेर दुर्ग में एक ही प्रांगण में विनिर्मित शांतिनाथ एवं अष्टापदजी के मन्दिर उत्कृष्ट कला के उदाहरण हैं । ये द्विभूमिक प्रासाद हैं । ऊपर के भाग में शान्तिनाथ एवं नीचे के अष्टापद मन्दिर में १७ वें तीर्थकर कुंथुनाथ प्रतिष्ठित हैं । इन दोनों मंदिरों की एक ही प्रशस्ति है जो राजस्थानी में है। इससे ज्ञात होता है कि जैसलमेर के दो श्रेष्ठि संखवालेचा गोत्रीय पेता तथा चोपड़ा गोत्रीय पांचा-जिनके मध्य वैवाहिक सम्बन्ध था-ने मिलकर इन मंदिरों का निर्माण करा वि सं. १५३६ में उसकी प्रतिण्ठा खरतरगच्छ आचार्य जिनसमुद्र सूरि द्वारा करवाई। संघवी घेता ने सकुटुम्ब शत्रुजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों की कई बार यात्रा की थी, और संभवनाथ मंदिर की सुप्रसिद्ध तपपट्टिका की प्रतिष्ठा कराई थी। उनके पुत्र संघवी वीदा ने मन्दिर में प्रशस्ति लगवाई तथा वि. सं. १५८० में अपने माता-पिता सरसती तथा सं. षेता की धातु-मूर्तियां पाषाण के हाथी पर मंदिर के प्रांगण में प्रतिष्ठित जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसे की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं; और गदहा रेंकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट स्वभावी दुर्जन थोड़ा भी गुण पाकर ऐंठने लगते हैं और अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने लगते हैं। -राजेन्द्र सरि राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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